SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १२७ ) क्षणमात्र मे नष्ट कर देता है। प्र० ६-आत्मार्थी को क्या करना चाहिये? उत्तर-आत्मा और पर वस्तुओ का भेद विज्ञान होने पर सम्यगज्ञान होता है । इसलिये सशय, विपर्यय और अनध्यवसाय का त्याग करके तत्त्व के अभ्यास द्वारा सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। प्र० १०-आत्मार्थी को सम्यग्ज्ञान क्यो प्राप्त करना चाहिये ? उत्तर-मनुष्य पर्याय, उत्तम श्रावक कुल और जिनवाणी का सुनना आदि सुयोग बारम्बार प्राप्त नहीं होते है-ऐसा दुर्लभ सुयोग प्राप्त करके सम्यग्ज्ञान प्राप्त न करना मूर्खता है। प्र० ११-प्रत्येक आत्मार्थी को प्रथम क्या करना चाहिये ? उत्तर-धन समाज गज बाज, राज तो काम न आवै, ज्ञान आपको रुप भये, फिर अचल रहावै, तास ज्ञान को कारन, स्व- पर विवेक बखानौ । कोटि उपाय बनाय भव्य, ताको उर आनौ ॥७॥ भावार्थ -(१) धन-सम्पत्ति, परिवार, नौकर-चाकर, हाथी-घोडा तथा राज्यादि कोई भी पदार्थ आत्मा को सहायक नहीं होते, किन्तु सम्यग्ज्ञान आत्मा का स्वरुप है । वह एक बार स्वभाव का आश्रय लेकर प्राप्त कर लिया जाय, कभी नष्ट नही होता, अचल एक रुप रहता है। (२) निज आत्मा और पर वस्तुओ का भेद विज्ञान ही उस सम्यग्ज्ञान का कारण है । (३) इसलिये प्रत्येक आत्मार्थी भव्य जीव को करोडो उपाय कर के उस भेद विज्ञान द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहिए। प्र० १२-छहढाला मे पुण्य-पाप मे हर्ष-विषाद का निषेध क्यो किया है ? उत्तर-पुण्य-पाप फल माहि हरख बिलखौ मत भाई, यह पुद्गल पर जाय उपजि विनसै हर थाई । भावार्थ-(१) आत्मार्थी जीव का कर्तव्य है कि धन-मकान-दुकान,
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy