SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १५२ ) १२. धर्म भावना धर्म स्वभाव आप सरधान, धर्म न शील नन्हौन न दान, "बुधजन " गुरु की सीख विचार, गहो धर्म आपन सुखकार || १२ || अर्थ :- हे जीव । निज स्वभाव का श्रद्धान करना ही धर्म है । धर्म न तो बाह्य शीलादि पालने मे है, न स्नान करने मे है और न दानादि देने में है । हे बुधजन | तुम श्री गुरु के इस उपदेश पर विचार करो और निज स्वरुप का निर्णय करके आत्मधर्म को ग्रहण करो । भावार्थ :- अतत्त्व श्रद्धान रहित निश्चय सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ही साररुप धर्म है । व्यवहार रत्नत्रय वह परमार्थ से धर्म नही है । जब जीव निश्चय रत्नत्रय रुप धर्म को स्व आश्रय द्वारा प्रगट करता है तभी वह स्थिर, अक्षय सुख प्राप्त करता है । इस प्रकार चिन्तवन करके सम्यग्दृष्टि जीव स्वोन्मुखता द्वारा शुचि की वृद्धि बारम्वार करता है । वह "धर्म भावना" है || १२ || दूसरी ढाल संसार- दुख वर्णन सुन रे जीव कहत हूँ तोको, तेरे हित के काजे । हो निश्चल मन जो तू घारे तब कुछ इक तोहि लाजे ।। जिस दुख से थावर तन पायो, वरन सको सो नाही । अठदश बार मरो अत्र जीयो, एक स्वास के माहीं ॥ १ ॥ अर्थ :- हे जीव | ध्यान पूर्वक सुन, तेरे हित के लिये तुझको कहता हूँ । जो यह हित की बात स्थिर चित्त होकर तू अब धारण करेगा तो तुझे कुछ तो लज्जा आवेगी कि अरे । अभी तक यह मैंने क्या किया ? अज्ञान से मैं कितना दुखी हुआ । एकेन्द्रिय स्थावर
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy