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________________ (१५३ ) शरीर धारण कर जो अत्यन्त दुख भोगे-उसे शब्दो मे वर्णन किया जा सके-ऐसा नही है । एक स्वास मे अठारह बार तो तू जन्मा और मरा ॥१॥ काल अनन्तानन्त रहो यो पुनि विकलत्रय हूवो। बहुरि असैनी निपट अज्ञानी छिन छिन जीओ मूवो। ऐसे जन्म गहो करमन वश, तेरो जोर न चालो। पुन्य उदय सैनी पशु हूवो, बहुत ज्ञान नहिं भालो ॥२॥ अर्थ:-हे जीव । इस प्रकार तू अनन्तानन्त काल पर्यन्त एकेन्द्रिय पर्याय मे रहा, पश्चात कभी दो इन्द्रियादि विकलत्रय पर्याय वाला हुआ, कदाचितपचेन्द्रिय पर्याय भी पाई तो असज्ञी महा अज्ञानी रहा और क्षण-क्षण मे जन्म-मरण किया। इस प्रकार अज्ञान से कोदय पश होकर तूने अनन्त जन्म धारण किये, वहाँ तेरा कुछ पुरुषार्थ नहीं हो सका , पश्चात पुण्योदय से कदाचित सज्ञी पशु भी हुआ तो भी वहां तू भेदज्ञान प्राप्त नहीं कर सका ॥२॥ जबर मिलो तब तोहि सतायो, निबल मिलो ते खायो। मात त्रिया सम भोगी रे पापी, तातें नरक सिधायो॥ कोटिन बिच्छू काटत जैसे, ऐसी भूमि तहां है । रुधिर राध जल छार बहे जहां, दुर्गन्ध निपट तहां है ॥३॥ अर्थ :-हे जीव । तुझ से बलवान पशुओ ने तुझे सताया और निर्बल मिला तो तूने उसे मारकर खाया। पशु दशा मे तूने माता को स्त्री समान मोगा, इसलिये तू पापी होकर नरको मे जा पडा। जहाँ की भूमि ऐसी कठोर है कि उसका स्पर्श होते ही मानो करोडो बिच्छू काटते हो-ऐसा दुख होता है और जहाँ अत्यन्त दुर्गन्ध युक्त सड़े लोहू से भरी खारे जल जैसी वैतरणी नदी बहती है ॥३॥ (याद रहे जीवों को दुःख होने का मूल कारण तो उनकी शरीर के साथ ममता तथा एकत्व बुद्धि हो है; धरती का स्पर्श आदि तो मात्र निमित्त कारण है।)
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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