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________________ ( १५१ ) है । यह छह द्रव्य स्वरूप लोक वह मेरा स्वरूप नही है, वह मुझसे त्रिकाल भिन्न है, मैं उससे भिन्न हूँ । मेरा शाश्वत चैतन्य लोक ही मेरा स्वरूप है । ऐसा ज्ञानी जीव विचार करता है और स्वोन्मुखता द्वारा विषमता मिटकर, साम्यभाव वीतरागता बढाने का अभ्यास करता है । वह "लोकभावना" है || ॥ १० ॥ ११. बोधि दुर्लभ भावना सब व्यवहार क्रिया को ज्ञान, भयो अनन्ती बार प्रधान । निपट कठिन अपनी पहिचान, ताको पावत होत कल्याण ॥११॥ अर्थ - हे जीव | सर्वं व्यवहार कियाओ का ज्ञान तो तुझे अनन्ती बार हुआ, परन्तु जिसकी प्राप्ति से कल्याण होता है ऐसे निज चिदानन्द घनस्वरुप की पहचान अत्यन्त दुर्लभ है । अत उस ही की पहचान करना योग्य है, - ऐसा तू जान । भावार्थ :- (१) मिथ्यादृष्टि जीव मन्द कषाय के कारण अनेक बार ग्रैवेयक तक उत्पन्न होकर अहमिन्द्र पद को प्राप्त हुआ है, परन्तु उसने एक बार भी सम्यग्ज्ञान प्राप्त नही किया, क्योकि समयग्ज्ञान प्राप्त करना वह अपूर्व है । उसे तो स्वोन्मुखता के अनन्त पुरुपार्थ द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है और ऐसा होने पर विपरोत अभिप्राय आदि दोषो का अभाव होता है । ( २ ) सम्यग्दर्शन - ज्ञान आत्मा के आश्रय से ही होते है। पुण्यकर्म, पुण्यभाव, पुण्य की सामग्री और परलक्षी ज्ञान के उधाड से नही होते । इस जीव ने बाह्य सयोग, चारो गति के लौकिक पद अनन्त बार प्राप्त किये हैं, किन्तु निज आत्मा का यथार्थ स्वरूप स्वानुभव द्वारा प्रत्यक्ष करके उसे कभी नही समझा, इसलिये उसकी प्राप्ति अपूर्व है । (३) बोधि अर्थात निश्चय सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र की एकता की प्राप्ति प्रत्येक जीव को करना चाहिये । ज्ञानी जीव स्व सन्मुखता पूर्वक ऐसा चिन्तवन करता है और अपनी वोधि और शुद्धि का वारम्वार अभ्यास करता है । वह "बोधि दुर्लभ भावना" है ॥ ११ ॥
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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