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________________ ( १५० ) ६. निर्जरा भावना तज कषाय मन की चल चाल, ध्यावो अपनी रूप रसाल । झड़े कर्म बन्धन दुखदान, बहुरि प्रकाशै केवलज्ञान ॥६॥ अर्थ - हे जीव । तू कषाय एव मन की च चल वृत्ति को छोडकर, आनन्द रस से भरे हुये अपने निज स्वरूप को थ्याओ, जिससे कि दुखदायी कर्म झड जावे और केवल ज्ञान प्रकाश प्रगट हो । भावार्थ -- अपनी-अपनी स्थिति पूर्ण होने पर कर्मों का खिर जाना तो प्रति समय अज्ञानी को भी होता है, वह कही शुद्धि का कारण नही होता है । परन्तु आत्मा के शुद्ध प्रतपन द्वारा जो कर्म खिर जाते हैं वह अविपाक अथवा सकाम निर्जरा कहलाती है । तदनुसार शुद्धि की वृद्धि होते होते सम्पूर्ण निर्जरा होती है तब जीव शिवसुख प्राप्त करता हैं । ऐसा जानता हुआ ज्ञानी जीव रचद्रव्य के आलम्बन द्वारा जो शुद्धि की वृद्धि करता है वह " निर्जरा भावना" है ॥६॥ १०. लोक भावना तेरो जन्म हुम नहि जहाँ, ऐसा क्षेत्तर नाहि कहाँ । याही जन्म भूमिका रचो, चलो निकल तो विधि से बचो ॥१०॥ अथ - हे जीव | सम्पूर्ण लोक मे ऐसा कोई क्षेत्र बाकी नही जहाँ तेरा जन्म न हुआ हो । तू इसी जन्मभूमि मे मोहित होकर क्यो मगन हो रहा है ? तू सम्यक् पुरुषार्थी बनकर इस लोक से निकल अर्थात् अशरीरी जो सिद्धपद उसमे स्थिर होओ । तभी तू सकल कर्म बन्धन से छूट सकेगा । भावार्थ- ब्रह्मा आदि किसी ने इस लोक को बनाया नही है, विष्णु या शेष नाग आदि किसी ने इसे टिका नही रक्खा है तथा महादेव आदि किसी से यह नष्ट नही होता, किन्तु यह छह द्रव्यमय लोक स्वय से ही अनादि अनन्त है। छहो द्रव्य नित्य रच स्वरूप से स्थित रहकर निरन्तर अपनी नई-नई अवस्थाओ से उत्पाद - व्ययरूप परिणमन करते रहते हैं । एक द्रव्य मे दूसरे द्रव्य का अधिकार नही
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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