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________________ ( १३०) जैटिलमैन घूमने को एक, वक्त शाम को जाता था। पाच चार थे दोस्त साथ मे, वातें बडी बनाता था ।। लगी जो ठोकर गिरे बाबूजी, लगी हाथ मे घडी रही ॥५॥ हाँ-हाँ कितना क्या करूँ मैं, इस दुनिया की अजव गति । भैया आना और जाना है, फर्क नहीं है एक रति ॥ सम्यक्त्व प्राप्त किया है जिसने, बस उसकी ही खरी रही ॥६॥ ३१ तर्ज-दिल लूटने वाले.. आत्म नगर मे ज्ञान ही गगा, जिसमे अमृत वासा है। सम्यकदृष्टि भर भर पीवे, मिथ्यादृष्टि प्यासा है ॥टेक।। सम्यकदृष्टि समता जल मे नित ही गोते खाता है। मिथ्यादृष्टि राग द्वष की, आग में झुलसा जाता है । समता जल का सिचन कर ले, जो सुख शान्ति प्रदाता है ॥१॥ पुण्य भाव को धर्म मानकर, के ससार वढाता है । राग बन्ध की गुत्थी को यह, कभी न सुलझा पाता है। जो शुभ फल मे तन्मय होता, वह निगोद को जाता है ॥२॥ पर मे अहकार तू करता, पर का स्वामी बनता है। इसीलिये ससार बढाकर, भव सागर मे रूलता है। एक बार निज आतमरस का, पान करना हे ज्ञाता है ।।३।। क्रोध मान माया छलनी, नित प्रति ही तुझको ठगती हैं। 'मिथ्या रूपी चोर लुटेरो ने, आतमनिधि लूटी है ।। जगा रही अध्यातम वाणी, अरू जिनवाणी माता है ॥४॥ मानुष अब दुर्लभ ये पाकर, आतम ज्योति जगानी है। ज्ञान उजेले में आ करके, अपनी निधि उठानी है ।। है तू शुद्ध निरजन चेतन, शिव रमणी का वासा है ॥५॥ 'जिसने अपने को नही जाना, पर को अपना माना है। मैं मैं करता चला आ रहा, दुख पर दुख ही पाना है। दया आतम पर करो सहज ही, अजर अमर तू ज्ञाता है।६।।
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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