SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १३१ ) ३२. उठ मूरख रूदन मचाया, सपने मे राजपद पाया ॥ टेक ॥ एक ईंट सिरहाने रख कर, सोय गया पृथ्वी पर पडकर । मुदे चैन से नैन स्वपन मे देखी अद्भुत माया, सपने मे ॥१॥ देखा एक शहर अति भारी, कोट किला और महल अटारी । प्रजा वहाँ की मिलकर सारी, इसको नृपत बनाया, सपने मे ॥२॥ बैठ तख्त पर हुक्म करे अब, आज्ञा माने सारे भूपत । छत्र चँवर सिर दुरे देख, तब नृप हर्पाया, सपने मे ॥३॥ वरी नार सुन्दर सुखदायी, चक्रत्रत सब सम्पत्ति पाई । भोगत भोग अनेक चैन मे, लाखो वर्ष गँवाया सपने मे ॥४॥ एक दिन राजसभा मे बैठे दे मुख ताव मूंछ को ऐठे । इतने मे कोई राहगीर ने, उसको आन जगाया, सपने मे ॥५॥ आँख खुली जब देखा जंगल, कहाँ गये वो सारे मगल । -राजपाट सब ठाट वाट पल भर मे कहा समाया, सपने मे 'हाय-हाय कर रोवन लागा, ले खुरपा मारन को भागा । -मूरख पथी तेने मेरी खोय, दई सबरी माया, सपने मे ॥७॥ ऐसे ही जानो जग सपना, पर द्रव्य को न मानो अपना । मक्खन क्यो भरमाया, सपने मे ॥६॥ राजपद पाया ||८|| • ३३. तर्ज-दिल लूटने वाले ... स्वास स्वास में सुमिरन करले, करले आतम ज्ञान रे । न जाने किस स्वास मे बाबा, मिल जाये भगवान रे ॥ टेक ॥। अनादिकाल से भूला चेतन, निज स्वरूप का ज्ञान रे । जीव देह को एक गिने बस, इससे तू हैरान रे ॥ शुभ को शुद्ध मानकर प्राणी, भ्रमत चतु गति माहि रे ॥१॥ कभी नरक मे हुआ नारकी, कभी स्वर्ग मे देव रे । - कभी गया तिर्यंच गति में, कभी मनुज पर्याय रे ॥ चौरासी मे स्वांग घरे पर, किया न भेद विज्ञान रे || २ ||
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy