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________________ ( १२६ ) ज्ञान हो ज्ञान मे नित्य रहते, शद्ध ज्ञायक हो निज मे विचरते । पर से मिलते नही, पर को छूते नही, प्यारे आतम भूल तुम क्यो भटकते निजातम ॥४॥ जग मे जीवात्मा तुम कहाते, होके परमात्मा भी सुहाते । सोचो समझो सुधी, हो रहे क्यो कुधी, प्यारे आतम भूल तुम क्यो भटकते निजातम ॥५॥ मोक्ष जिस-जिसने शीतल है पाया, हेतु शाश्वत शरण तू कहाया। मेरे आनन्दघन, हे निराकुल सदन, प्यारे आतम भूल तुम क्यो भटकते निजातम ॥६॥ आशाओ का हुआ खातमा, दिली तमन्ना धरी रही। धस परदेशी हुआ रवाना, प्यारी काया पडी रही ।।टेका। करना-करना आठो पहर ही, मूरख कूक लगाता है मरना-मरना मुझे कभी नही, लफ्ज जबाँ पर लाता है । पर सब ही मरने वाले है, झडी न किसी की खडी रही ॥१॥ एक पडित जी पत्रिका लेकर, गणित हिसाब लगाते थे। समय काल तेजी मदी की, होनहार बतलाते थे। आया काल चले पडितजी, पत्री कर मे घरी रही ॥२॥ एक वकील आफिस मे बैठे, सोच रहे यो अपने दिल । फला दफा पर बहस करूंगा, पाइट मेरा बडा प्रबल ।। इधर कटा वारट मौत का, कल की पेशी पडी रही ॥३॥ एक साहब वैठे दुकान पर, जमा खर्च खद जोड रहे। इतना लेना इतना देना, 'बड़े गौर से खोज रहे ।। काल बली की लगी चोट, जब कलम कान मे टकी रही ॥४॥ इलाज करने को इक राजा का, डाक्टर जी तैयार हुए। विविध दवा औजार साथ ले, मोटर कार सवार हुए। आया वक्त उलट गई मोटर, दवा बोक्स मे भरी रही ॥५॥
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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