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________________ गोष्टी कथा कुतूहल विघट, पुद्गल प्रीति नसावै। राग दोष जुग चपल पक्षजुत, मन पक्षी मर जा* ॥२॥ ज्ञानानन्द सुधारस - उमगे, घट अन्तर न समावै । 'भागचन्द' ऐसे अनुभव के, हाथ जोरि सिर नावै ॥३॥ १३. भागचन्द धन्य धन्य है घडी आजकी, जिनधुनि श्रवन परी। तत्व प्रतीति भई अव मेरे, मिथ्यादष्टि टरी ॥टेक।। जडतै भिन्न लखी चिन्मूरत, चेतन स्वरस भरी। अहकार ममकार बुद्धि पुनि, परमे सब परिहरी ॥१॥ पाप पुन्य विधि बघ अवस्था, भासी अति दुख भरी। वीतराग विज्ञानभावमय, परिनति अति विस्तरी ॥२॥ चाह-दाह विनसी बरसी पुनि, समता मेघझरी। बाढी प्रीति निराकुल पदसो, भागचन्द' हमरी ॥३॥ १४. दौलतराम आपा नहि जाना तूने, कैसा ज्ञानधारी रे ।।टेक।। देहाश्रित करि क्रिया आपको, मानत शिवमगचारी रे ॥१॥ निज-निवेद विन गोर परीपह, विफल कही जिनसारी रे ॥२॥ शिव चाहे तो द्विविधिकर्म ते, कर निजपरनति न्यारी रे ॥३॥ 'दौलत'जिननिजभावपिछान्यो, तिन भवविपत विढारी रे ॥४॥ १५. दौलतराम चिन्मूरत दृग्यारीकी मोहि, रीति लगत है अटापटी ॥टेक।। बाहिर नारकिकृत दुख भोगे, अन्तर सुख रस गटागटी। रमत अनेक सुरनि सग पै तिस, परनतित नित हटाहटी ॥१॥ ज्ञानविराग शक्तितै विधिफल, भोगत पै विधि घटाघटी। सदननिवासी तदपि उदासी, तातै आस्रव छटाछटी ॥२॥ जे भवहेतु अबुधके ते तस, करत बन्धकी झटाझटी। नारक पशू तिय षढ विकलत्रय, प्रकृतिनकी ह्व फटाकटी॥३॥
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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