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________________ ( १२१) यह बहु भूल भई हमरी, फिर कहा काज पछिताये। 'दौल' तजी अजहू विषयन को, सत् गुरु वचन सुहाये ॥३॥ १०. भागचन्द्र जीवन के परिनामनिकी यह, अति विचित्रता देखहुज्ञानी ।।टेका। नित्य निगोदमाहितै कढिकर, नर परजाय पाय सुखदानी । समकित लहि अतर्मुहूर्तमे, केवल पाय वर शिवरानी ॥१॥ मुनि एकादश गुणथानक चढि, गिरत तहातें चित भ्रमठानी। भ्रमत अर्धपुदूगल परिवर्तन, किचित् ऊन काल परमानी ॥२॥ निज परिनामनिकी सभाल मे, तातै गाफिल हवै मत प्रानी।। बंध मोक्ष परिनामनिहीसो, कहत सदा श्रीजिनवरवानी ॥३॥ सकल उपाधिनिमित भावनिसो, भिन्नसुनिज परनतिको छानी। ताहि जानि रुचि ठानहोहु थिर, 'भागचद' यह सीख सयानी ॥४॥ ११. दौलतराम आतम रूप अनुपम अद्भुत, याहि लखै भवसिंधु तरोटेक। अल्पकाल मे भरत चक्रघर, निज आतम को ध्याय खरो । केवलज्ञान पाय भवि वोधे, ततछिन पायो लोक शिरो॥१॥ 'या विन समझे द्रव्य लिंग मुनि, उग्न तपन कर भार भरो। नवग्रीवक पर्यन्त जाय चिर, फेर भवार्णव माहिं परो॥२॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान चरन तप, येहि जगत मे सार नरो। पूरव शिवको गये जाहिं अब, फिर जै है यह नियत करो ॥३॥ कोटि ग्रन्थ को सार यही है, ये ही जिनवानी उचरो। 'दौल' ध्याय अपने आतम को, मुक्तरमा तव वेग वरो ॥४॥ १२. भागचन्द आतम अनुभव आवै जब निज, आतम अनुभव आवै । और कछू न सुहावै, जब निज आतम अनुभव आवै ॥टेक॥ रस नीरस हो जात ततच्छिन, अक्ष विषय नहिं भाव ॥१॥
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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