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________________ (273 ) पाये जाते हैं / अन्य 5 द्रव्यो मे नही पाये जाते / आत्मा में किन-किन जाति के भाव-परिणाम-अवस्थायें होती हैं—यह इससे ख्याल मे आ जाता है और इनके द्वारा जीव को जीव का स्पष्ट ज्ञान साङ्गोपाङ्ग द्रव्य गुण पर्याय सहित हो जाता है। इन भावो के जानने से जान में बडी स्पष्टता आ जाती है। अच्छे बुरे [हानिकारक अथवा लाभदायक] परिणामो का ज्ञान होता है जैसे मोह को अनुसरण करके होने वाला औदयिक भाव हानिकारक तथा दुखरूप है। मोह के मभाव से होने वाले औपशमिक-क्षायोपगमिक भाव मोक्षमार्ग रूप हैं तथा क्षायिक भाव मोक्षरूप हैं / क्षायिक ज्ञान दर्शन वीर्य जीव का पूर्ण स्वभाव हैक्षायोपशमिक एकदेश स्वभाव है। विपरीत ज्ञान विभाव रूप है। इत्यादिक / प्रश्न २८३-क्षायिक भाव किसे कहते हैं ? उसके फितने भेद है ? उत्तर-कर्म के क्षय को अनुसरण करके होने वाले भाव को क्षायिक भाव कहते हैं। उसके 6 भेद हैं। 1 क्षायिक सम्यक्त्व, 2 चारित्र, 3 ज्ञान, 4 दर्शन, 5 दान, 6 लाभ, 7 भोग, 8 उपभोग और 6 वीर्य / इनको 6 क्षायिक लब्धिया भी कहते हैं। ये भाव तेरहवे गुणस्थान के प्रारम्भ मे प्रगट होकर सिद्ध मे अनन्त काल तक धारा प्रवाह रूप से प्रत्येक समय होते रहते हैं / 6 भिन्न 2 अनुजीवी गुणो की एक समय की क्षायिक पर्यायो के नाम हैं। आदि अनन्त भाव हैं। प्रश्न २८४-औपशमिक भाव किसे कहते हैं और उसके कितने भेद हैं ? उत्तर-कर्म के उपशम को अनुसरण करके होने वाले भाव को औपशमिक भाव कहते हैं। इसके 2 भेद हैं। 1 औपशमिक सम्यक्त्व, 2 औपशमिक चारित्र / वह श्रद्धा और चारित्र गुण का एक समय का क्षणिक स्वभाव परिणमन है। सादि सान्त भाव है। औपशमिक सम्यक्त्व तो चौथे से सातवें तक रह सकता है और पूर्ण मौपशमिक चारित्र ग्यारहवे गुणस्थान मे होता है।
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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