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________________ वाले का अभिप्राय क्या है तथा प्रकरण क्या है यह जानने की आवश्यकता है तथा द्रव्य गुण पर्याय का ठीक-ठीक ज्ञान होना चाहिए। फिर भूल का अवकाश नही है। एक बात और खास यह है कि बिना असली सम्यग्दर्शन रूप पर्याय प्रगट हुवे भी मिथ्यादष्टि ज' शास्त्र के बल से तत्त्वार्थ की विकल्पात्मक श्रद्धा करता है ग्यारह अग तक का विकल्पात्मक ज्ञान करता है तथा छह कार्य के जीवो की रक्षा करता है उसकी आगम मे व्यवहार कहने की पद्धति है जैसे श्री प्रवचनसार सूत्र 236 के शीर्षक मे मिथ्यादृष्टि के तीनो कहे हैं, श्री समयसार जी सूत्र 276 मे मिथ्यादृष्टि के तीनो आचारादि शास्त्र ज्ञान को ज्ञान, जीवादि के श्रद्धान को श्रद्धान और षटकाय के जीवो को रक्षा को चारित्र कह कर झट 277 मे उसका निपेध कर दिया है कि रत्नत्रय तो आत्माश्रित शुद्धभाव है यह राग रत्नत्रय नहीं हो सकता इसमे इतना विवेक रखने की आवश्यकता है कि मिथ्यादृष्टि के श्रद्धानादि को व्यवहार कहने पर भी वह व्यवहाराभास है / न व्यवहार रत्नत्रय है न निश्चय रत्नत्रय है। श्री समयसार जी कलश न. 6 मे कहा है कि नी तत्त्वो की विकल्पात्मक श्रद्धा को छोडकर एक आत्मानुभव हमे प्राप्त हो / वहाँ भी रागवाली नौ पदार्थों की श्रद्धा से आशय है। कुछ लोगो का ऐसा भी कहना है कि सम्यग्दर्शन से पूर्व होने वाली नी पदार्थों की श्रद्धा को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं किन्तु सम्यक्त्व का उत्पत्ति से पहले व्यवहार रत्नत्रय होता ही नहीं। इसकी साक्षी श्री पचास्तिकाय मूत्र 106 तथा 107 की टीका मे नियम कर दिया है कि दर्शनमोह के अनुदय और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से पहले कोई मोक्षमार्ग नही। बिना निश्चय के व्यवहार किस का / अव सार वात यह है कि वास्तव मे तो सम्यग्दर्शन श्रद्धा गुण की निविकल्प शुद्ध पर्याय है जो चौथे से सिद्ध तक एक हप है। उसमे निश्चय व्यवहार है ही नही। वास्तव में यह व्यवहार निश्चय को कल्पना ते रहित सम्यक्त्व अद्वत रूप है। इसको चर्चा
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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