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________________ ( 247 ) स्वय ग्रथकार छठी पुस्तक मे करेगे। ये अनेकान्त आगम की तीक्ष्णधारा है / गुरुगम से चलानी सीखनी पड़ती है अन्यथा रागरूप शत्रु का गला कटने की बजाय जीव स्वय खड्डे में पड़ जाता है। विशेष सद्गुरु के परिचय से जानकारी करें। हम जैसे तुच्छ पामर क्या आगम का पार पा सकते हैं ? सद्गुरु देव की जय / ओ शान्ति / श्री चिविलास परमागम में कहा है चौथे गुणस्थान वाला जीव श्री सर्वज्ञ कर कहे हुवे वस्तु स्वरूप को चितवन करता है, उसको सम्यक्त्व हो गया है। उस सम्यक्त्व के 67 भेद हैं / वे कहते है। प्रथम श्रद्धान के चार भेद हैं (1) परमार्थ संस्तव-सात तत्त्व हैं / उनका स्वरूपज्ञाता चिन्तवन करता है। चेतना लक्षण, दर्शनज्ञानरूप उपयोग-अनादि अनन्त शक्ति सहित अनन्त गुणो से शोभित मेरा स्वरूप है / अनादि से परसयोग के साथ मिथ्या है तो भी (हमारा) ज्ञान उपयोग हमारे स्वरूप मे ज्ञेयाकार होता है; पर शेयरूप नही होता है (हमारी) ज्ञान शक्ति अविकाररूप अखण्डित रहती है। ज्ञेयों को अवलम्बन करती है पर निश्चय से परज्ञेयो को छूती भी नहीं है। उपयोग परको देखता हुआ भी अनदेखता है, पराचरण करता हुआ भी अकर्ता है-ऐसे उपयोग के प्रतीति भाव को श्रद्धता है। अजीवादिक पदार्थों को हेय जानकर श्रद्धान करता है। बारम्बार भेदज्ञान द्वारा स्वरूप चिन्तवन करके स्वरूप की श्रद्धा हुई, उसका नाम परमार्थ सस्तव कहा जाता है। (2) मुनित परमार्थ-जिनागम-द्रव्यश्रुत द्वारा अर्थ को जान कर ज्ञान ज्योति का अनुभव हुआ, उसको मुनित परमार्थ कहते हैं। (3) यतिजन सेवा-वीतराग स्वसवेदन द्वारा शुद्ध स्वरूप का रसास्वाद हुआ, उसमे प्रीति-भक्ति-सेवा, उसको यतिजन सेवा कहा जाता है।
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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