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________________ ( 245 ) तो निश्चय कहा है और राग को व्यवहार कहा है और जिन्होने भिन्नभिन्न समय की मुख्यता से कहा है उन्होंने सम्यग्दृष्टि मुनि की सविकल्प अवस्था को व्यवहार रत्नत्रय और निर्विकल्प अवस्था को निश्चय रत्नत्रय कहा है (वृहद्रव्यसग्रह गा० 39 की टीका इन दोनो पद्धतियो का स्पष्ट प्रमाण है) जिन्होने एक समय मे माना है उन्होने राग पर कारण का आरोप कर दिया है और निश्चय तो है ही कार्य रूप जिन्होने ज्ञान की सविकल्प (व्यवहार रत्नत्रय) अवस्था को कारण और निविकल्प अवस्था को कार्य माना है उनका आशय ऐसा है कि जो भेदसहित तत्त्वो का ज्ञाता होगा वही तो विकल्प तोडकर निर्विकल्प दशा रूप कार्य अवस्था को प्राप्त करेगा। बाकी यह सब कहने का कार्य कारण है वास्तव मे तो सामान्य आत्मा का आश्रय ही तीनो शुद्ध भावो का वास्तविक कारण है क्योकि सामान्य मे से ही तो रत्नत्रय प्रगट होता है और व्यवहार (राग का कारण परवस्तु का आश्रय है क्योकि पर मे अटकने से ही तो राग की उत्पत्ति होती है। यह वास्तविक कारण नही है। राग और शुद्धभाव का क्या कार्यकारण? एक बन्धरूप है एक मोक्षरूप है ? ये तो दोनो विरोधी है / विपरीत कार्य के करने वाले है। ___कोई भी सम्यक्त्व कहो उसमे श्रद्धा गुण की स्वभाव पर्याय का सहचर होना अवश्यम्भावी है। वास्तव मे सम्यग्दर्शन कई प्रकार का नही है किन्तु उसका निरूपण कई प्रकार का है। सम्यग्दर्शन तो श्रद्धा गुण को स्वभाव पर्याय होने से एक ही प्रकार का है। उसका कथन कही द्रव्यकर्म रूप निमित्त की अपेक्षा से औपशमिक आदि तीन प्रकार का है। कही वुद्धिपूर्वक राग के असद्भाव और सद्भाव के कारण निश्चय व्यवहार दो प्रकार का है। कही श्रद्धागुण की अपेक्षा कथन है। कही ज्ञान गुण की अपेक्षा कथन कही चारित्र की अपेक्षा कथन है। सिद्धो के आठ गुणो मे श्रद्धा और चारित्र दोनो की इकट्ठी एक शुद्ध पर्याय का नाम सम्यक्त्व है वहां ज्ञान को भिन्न कर दिया है और चारित्र को सम्यक्त्व मे समाविष्ट कर दिया है। कहां तक कहे / कहने
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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