SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 164 ) है पर शब्द नहीं है इसलिये अवक्तव्य नय नाम रक्खा / वहाँ सामान्य विशेप का भेद ही नही है / उसका लक्षण ऐसा है कि न सामान्य है न विशेप है। यह भेद ही जहाँ नही है। उसकी दृष्टि मे वस्तु मे भेद कहना ही भूल है। जो है सो है। उसका विषय अनुभव गम्य है / शब्द मे अनिर्वचनीय है / अवक्तव्य है। पर वह अखण्ड वस्तु की द्योतक है / नयभगी मे अवक्तव्य नय वस्तु के एक अश की कहने वाली है। यह भेद सहित दोनो धर्मों को युगपत स्वीकार करती है। वह दोनो धर्मों को ही वस्तु मे स्वीकार नहीं करती। इतना अन्तर है वह दष्टि श्रीसमयसार गा० 272 से निकाली है। वहाँ उसका लक्षण व्यवहार प्रतिषेध लिखा है। वह आध्यात्मिक वस्तु है। यह दृष्टि श्री पचास्तिकाय गाथा 14 तथा श्री प्रवचनसार गा० 115 से निकाली है। इस का लक्षण इन दोनो मे ऐसा लिखा है 'स्यादस्त्यवक्तव्यमेव स्वरूपपररूपयोगपद्याभ्या'। यह आगम की वस्तु है। वह निर्विकल्प है यह सविकल्प है / वह अखण्ड की द्योतक है यह अश की द्योतक है / वह नयातीत अवस्था है यह नयदृष्टि है। आगम मे कहाँ अनुभय शब्द या अवक्तव्य शब्द या अनिर्वचनीय शव्द किसके लिये आया है। यह गुरुगम से ध्यान रखने की बात है / भाव आपके हृदय मे झलकना चाहिये फिर आप मार नही खायेगे। भावभासे बिना तो आगम का निरूपण मोक्षशास्त्र मे कहा है कि सत् (सच्चे) और असत् (झूठे)की विशेषता विना पागल के समान इच्छानुसार वकता है। यह आपकी चौथी नय पूरी हुई। शेप तीन तो इनके सयोग रूप हैं और उनमे कोई खास बात नही है। (B) अब एक अनेक युगल पर लगाते हैं। एक या अनेक जिस को आप कहना चाहते हैं। या जिस रूप वस्तु को देखना चाहते हो उसका नाम होगा स्व और दूसरे का पर / मानो आप एक रूप से कह्ना चाहते हैं तो (1) वस्तु स्व (एक रूप)से है। इसमे सारी वस्तु अखण्ड नजर आयेगी (2) और उस समय वस्तु पर रूप से (अनेक रूप से)
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy