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________________ 1155 ( 195 ) जही है। यह धर्म विल्कुल गौण हो जायेगा / यदि अनेक रूप देखने की 6. इच्छा है तो कहिये (1) वस्तु स्व (अनेक) रूप से है / इस दृष्टि वाले को द्रव्य अपने लक्षण से भिन्न नजर आयेगा, गुण अपने लक्षण से भिन्न नजर आयेगा, पर्याय अपने लक्षण से भिन्न नजर आयेगी और उस समय वही वस्तु (2) पर (एकत्व) से नही है। वस्तु का अखण्डपना लोप हो जायेगा। डूब जायगा। ज्ञानी की एकत्व दृष्टि की मुख्यता / रहती है / अज्ञानी जगत की सर्वथा अनेकत्व दृष्टि है / (3) एक अनेक दोनो को क्रम से देखना हो तो कहिये- 'स्व से है पर से नही है। यह अस्ति-नास्ति, (4) एक अनेक दोनो रूप एक साथ देखना हो तो कहेगे 'वस्तु अवक्तव्य है' / शेष तीन भग इनके योग से जान लेना। (C) अब तत् अतत् पर लगाते हैं। जब आपको वह देखना हो कि वस्तु वही की वही है तो तत् धर्म की मुख्यता होगी और इसका 'नाम होगा 'स्व' अब कहिये (1) वस्तु स्व (तत् धर्म से) है। इसमे सारी वस्तु वही की वही नजर आयेगो (2) वस्तु पर से नहीं है। अंतत् धर्म (नई-नई वस्तु) बिल्कुल गौण हो जायगा। अगर आपको 'अतत् धर्म से देखना है तो अतत् धर्म स्त्र हो जायगा तो कहिये (1) वस्तु स्व (मतत्) रूप से है। इसमे समय 2 की वस्तु नई-नई नजर आयेगी। (2) वस्तु पर नहीं से है। इसमे वस्तु वही ही वही है। ये धर्म बिल्कुल गौण हो जायगा। (3) क्रम से वही की वही और नईतई देखनी है तो कहिये अस्ति-नास्ति / (4) एक समय मे दोनो रूप देखनी है तो अवक्तव्य / शेष तीन इनके योग से जान लेना / ज्ञानियो को तत् धर्म की मुख्यता रहती है। अज्ञानी जगत् तो देखता ही अतत् धर्म से है / तत् धर्म का उसे ज्ञान ही नही। (D) अब सामान्य विशेष पर लगाते हैं। आपको सामान्य रूप विस्तु देखनी हो तो सामान्य धर्म स्व होगा। (1) कहिये वस्तु स्व है। इसमे सारी वस्तु सत् रूप हो नजर आयेगी फिर कहिये (2) स्तु पर से नही है / विशेष रूप से बिल्कुल गौण हो जायेगी। जीव
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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