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________________ ( 163 ) नही दीख रही है। वह धर्म बिल्कुल गौण है, गौण वाले को नास्ति कहते हैं / यह दूसरा नास्ति नय है। यह ज्ञानियो के देखने की रोति है। अब अज्ञानी कैसे देखते है / यह बताते है उनको द्रव्य दृष्टि का तो ज्ञान ही नही / उनकी केवल पर्याय दृष्टि ही रहती है। अब आप भी यदि इस दृष्टि से देखना चाहते हो तो पर्याय को मुख्य करिये-स्वभाव को गौण करिये। पर्याय स्व हो जायेगी। स्वभाव पर हो जायेगा। अव कहिये (1) वस्तु स्व से है-अस्ति, इसको सारा जीव मनुष्य रूप दृष्टिगत होगा। (2) वस्तु पर से नहीं है / स्वभाव अत्यन्त गौण है। इस सप्नभगी का प्रयोग तो ज्ञानी ही जानते हैं / ऊपर अज्ञानी का तो दृष्टात रूप से लिखा है / अज्ञानी को तो एकत्व दृष्टि है। सप्तभगी का प्रयोग तो अनेकान्त दृष्टि वाले ज्ञानी प्रयोजन सिद्धि के लिये करते हैं / (3) अब दोनो धर्मों को क्रमश ज्ञान कराने के लिये कहते है कि वस्तु स्व (त्रिकाली स्वभाव से है) और पर (परिणाम) से नहीं है या वस्तु स्व (परिणाम) से है और पर (त्रिकाली स्वभाव से नहीं है) यह अस्ति-नास्ति तीसरा भग है। इसका लाभ यह है कि वस्तु के दोनो पडखो का क्रमशः ज्ञान हो जाता है। (4) अब वे दोनो धर्म वस्तु मे तो एक समय मे युगपत इकट्ठे हैं और आप क्रम से कह रहे हैं / अब आपकी इच्छा हुई कि मैं एक साथ ही कहूँ तो उस भाव को प्रगट करने के लिए अवक्तव्य शब्द नियुक्त किया गया / अवक्तव्य कहने वाले तथा समझने वाले का इस शब्द से यह भाव स्पष्ट प्रकार हो जाता है कि वह दोनो भावों को युगपत कह रही है। यह चौथा अवेतन्य भग है। एक बात यहाँ खास समझने की है कि यह अवक्तव्य नरे' और है और दृष्टि परिज्ञान मे जो अनुभय दृष्टि बतलाई थी वह और चीज है / यहाँ वस्तु के दोनोधर्मों की भिन्नभिन्न स्वीकारता है। कहने वाला दोनों को एक समय मे कहना चाहता यह यह चौथा अवेस्तन्य और दृष्टि परिज्ञानको भिन्न
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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