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________________ ( 192 ) गाथा मे है / यह इस प्रकार चलती है कि सामान्य का विशेष मे अभाव, विशेप का सामान्य मे अभाव / चलाने का तरीका दोनो का एक प्रकार का है। श्री पचास्तिकाय मे तो छ द्रव्यो का विपय था, इसलिये वहां छ द्रव्यो पर लगने वाली द्रव्य सप्तभगी की आवश्यकता पड़ी और श्रीप्रवचनसार मे एक ही द्रव्य के सामान्य विशेप का विपय चल रहा था, इसलिए वहाँ नय सप्तभगी बतलाई। इस अय मे सव विषय नय सप्तभगी का है क्योकि यह सम्पूर्ण ग्रथ एक ही द्रव्य पर लिखा गया है / दूसरे द्रव्य को यह स्पशे भी नहीं करता। वह सप्तभगी यहां सामान्य विशेष के चार युगलो पर लगेगी / सो सब से पहले एक नित्य अनित्य युगल पर लगाकर दिखलाते है। इस पर आपको सरलता से समझ मे आ जायेगी। देखिये द्रव्य मे दो स्वभाव हैं एक तो यह कि वह अपने स्वभाव को त्रिकाल एक रूप रखता है। दूसरा यह कि वह हर समय परिणमन करके नए-नए परिणाम उत्पन्न करता है / स्वभाव त्रिकाल स्थायी है। परिणाम एक समय स्थाई है / अत दोनो भिन्न हैं। अब जिसको आपको कहना हो, वह मुख्य हो जाता है / मुख्य को 'स्व' कहते हैं। दूसरा धर्म गौण हो जाता है। गौण को पर' कहते हैं। यह ध्यान रहे कि स्व या पर किसी खास का नाम नहीं है। जिसके विषय मे कहना हो, वही स्व कहलाता है। अब आपको त्रिकाली स्वभाव को कहना है तो त्रिकाली स्वभाव का नाम स्व हो जायेगा और परिणाम का नाम पर हो जायेगा तो आप इस प्रकार कहेगे (1) वस्तु स्व से है अर्थात् त्रिकाली स्वभाव की अपेक्षा से है। इस दृष्टि वाले को सबकी सव वस्तु एक स्वभाव रूप दृष्टिगत होगी। जीव रूप दिखेगी-मनुष्य देव रूप नहीं दिखेगी। वह धर्म बिल्कुल गौण हो जाएगा। यह पहला अस्ति नय है। अस्ति अर्थात् मुख्यजिसके रहने की आपने मुख्यता की है। (2) उसी समय वस्तु पर रूप से नहीं है अर्थात् परिणाम की अपेक्षा से नही है / इस दृष्टि वाले को वस्तु पर्याय रूप~मनुष्य रूप
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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