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________________ ( 169) अन्वय दृष्टि, त्रिकाली दृष्टि, निश्चय दृष्टि, सामान्य दृष्टि मादि।। जब अवस्था को देखना हो तो सारे का सारा द्रव्य परिणाम रूप, पर्यायरूप, अनवस्थित, हानिवृद्धि रूप अवस्था रूप दृष्टिगत होगा। इसको कहते हैं पर्याय दृष्टि, व्यवहार दृष्टि, विशेष दृष्टि आदि / यहाँ यह वात खास ध्यान रखने की है कि ऐसा नहीं है कि त्रिकाली स्वरूप तो किसी कोठे मे जुदा पड़ा है और पर्याय का स्वरूप कही ऊपर घरा हो। पर्यायरूप परिणमन उस स्वभाववान का ही है। उनमे दोनो धर्मों के प्रदेश तो भिन्न हैं नही। पर स्वरूप दोनो इस कमाल से वस्तु मे रहते हैं कि उसको माप चाहे जिस दृष्टि से देख लो हूबहू वैसी की वसी नजर आयेगी। जैसे एक जीव वर्तमान में मनुष्य है। अब यदि स्वभाव दृष्टि से देखो तो वह चाहे मनुष्य है या देव, सिद्ध है या संसारी, जीव तो एक जैसा ही है। इसलिए तो जगत् मे कहा जाता है कि जो कर्ता है वह भोगता है। सिद्ध ससारी मे कही जीव के स्वरूप में फर्क नही आ गया है और यदि पर्याय दृष्टि से देखे, परिणाम दृष्टि से देखें तो कहाँ देव कहाँ मनुष्य, कहाँ ससारी कहां सिद्ध / यह परि मन स्वभाव का कमाल है कि स्वकाल की योग्यता अनुसार कही स्वभाव के अधिक अश प्रगट हैं कही कम अश प्रगट है। केवल प्रगटता अपगढ़ता के कारण, अवगाहन के कारण, भूत्वाभवन के कारण, आकारान्तर के कारण यह अन्तर पड़ा है। स्वभाव को बनाये रखना अगुरुलघु गुण का काम है। परिणमन कराते रहना द्रव्यत्व गुण का काम है / क्या कहें वस्तु ही कुछ ऐसी बनी हुई है / इस ग्रन्थ मे इसको 2.65, 66, 67 और 168 मे लगा कर दिखलाया है। 17 शिव एक बात और रह गई। कही द्रव्य दृष्टि प्रथमवणित अभेद अखण्ड के लिए प्रयोग की है और पर्याय दृष्टि भेद के लिए प्रयोग की : है.और कही द्रव्य दृष्टि स्वभाव के लिए और पर्याय दृष्टि परिणाम के लिए प्रयोग की जाती है। अब कहाँ क्या अर्थ है यह गुरुगम से भलीभांति सीख लेने की बात है, वरना अर्थ का अनर्थ हो जाएगा और PM 1-4. c b +
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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