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________________ (170 ) ‘पदार्थ का भान न होगा। जितना ग्रन्थ आप पढ़ चुके है इसमे न० 84, 88, 216, 247 मे अभेद के लिए द्रव्य दृष्टि और भेद के लिए पर्याय दृष्टि का प्रयोग किया है। और न० 65, 66, 67, 168 मे स्वभाव के लिए द्रव्य दृष्टि और परिणाम के लिए पर्याय दृष्टि का प्रयोग किया है / आप सावधान रहे इसमे बडे-बडे शास्त्रपाठी भी भूल कर जाते हैं। अध्यात्म के चक्रवर्ती श्री अमृतचन्द्र सूरि ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय न० 58 मे लिखा है कि इस अज्ञानी आत्मा को वस्तु स्वरूप का भान कराने मे नयचक्र को चलाने मे चतुर ज्ञानी गुरु ही शरण ही सकते है। सद्गुरु विना न आज तक किसी ने तत्त्व पाया है न पा सकता है ऐसा ही अनादि अनन्त मार्ग है / वस्तु स्वभाव है / कोई क्या करे। अर्थ इसका यह है कि जब जीव मे यथार्थ बोध की 'स्वकाल' मे योग्यता होती है तो सामने अपने कारण से वस्तु स्वभाव नियमातुसार ज्ञानी गुरु होते हैं / तव उन पर आरोप आता है कि गुरुदेव की कृपा से वस्तु मिली / निश्चय से आत्मा का गुरु आत्मा ही है / जगत् मे सत् का परिज्ञान हुये बिना किसी की पर मे एकत्वबुद्धि, पर कतृ त्व भोक्तृत्व का भाव नही मिटता तथा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती और सत का परिज्ञान करने के लिए इससे बढिया ग्रन्थ जगत में आज उपलब्ध नही है। यह ग्रन्थराज है। यदि मोक्षमार्गी बनने की इच्छा है तो इसका रुचिपूर्वक अभ्यास करिये। यह नावल की तरह पढन का नही है। कोर्स ग्रन्थ है। इसका बार-बार मथन कीजिए, विचार कीजिए। सद्गुरुदेव का समागम कीजिए तो कुछ ही दिनो में पदाय का स्वरूप आपको झलकने लगेगा / सदगुरु देव की जय / आशान्ति / कण्ठस्थ करने योग्य प्रश्नोत्तर प्रमाण श्लोक नं० द्रध्यत्व अधिकार (1) प्रश्न 1- शुद्ध द्रव्यायिक नय से (निश्चय दष्टि से-अभेद दृष्टि से) द्रव्य का क्या लक्षण है ?
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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