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________________ पदार्थ का वह ठीक ख्याल महार दृष्टि का परिचय दृष्टि का ( 168 ) पदार्थ का ठीक-ठीक बोध हो जाता है और जैसा पदार्थ स्वतः सिद्ध बना हुआ है वैसा वह ठीक ख्याल मे पकड मे आ जाता है। सो ग्रन्थकार ने यहाँ पहली व्यवहार दृष्टि का परिज्ञान 747 को दूसरी पक्ति मे तथा 746 मे कराया है। दूसरी निश्चय दृष्टि का परिज्ञान 747 की प्रथम पक्ति तथा 750 की प्रथम पक्ति मे कराया है और तीसरी प्रमाण दृष्टि का परिज्ञान 748 मे तथा 750 को दूसरी पक्ति मे कराया है। और इस ग्रन्थ मे न० 8 से 70 तक निश्चय अभेद दृष्टि से सत् का निरूपण किया है और 71 से 260 तक भेद दृष्टि-व्यवहार दृष्टि से सत का निरूपण किया है और 261 मे तीसरी प्रमाण दृष्टि से सत् का निरूपण किया है। श्लोक न० 84,88, 216 तथा 247 मे भेद और अभेद दप्टियो को लगा कर भी दिखलाया है। इस प्रकार द्रव्य के भेदभेदात्मक स्वरूप को दिखलाया है। ___अब दूसरी बात यह जानने की है कि ऐसे भेदाभेदात्मक द्रव्य में दो स्वरूप पाये जाते है एक तो यह कि वह अपने स्वरूप को (स्वभाव को) त्रिकाल एक रूप बनाए रखता है और दूसरा स्वभाव यह कि वह उस स्वभाव को बनाये रखते हुए भी प्रति समय स्वतन्त्र निरपेक्ष स्वभाव या विभाव* रूप परिणमन किया करता है और उस परिणमन मे हानि-वृद्धि भी होती है। स्वभाव का नाम है द्रव्य, सत्त्व, वस्तु, पदार्थ आदि और उस परिणमन का नाम है पर्याय, अवस्था, दशा, परिणाम आदि / यहा भी द्रव्य को दो रूप से देखा जाता है जब स्वभाव को देखना है तो सारे का सारा द्रव्य स्वभाव रूप, त्रिकाल एक रूप, अवस्थित नजर आयेगा इसको कहते हैं द्रव्य दृष्टि, स्वभाव दृष्टि, * दैसिये श्री समयसार गाथा 116 से 125 तक तथा कलश न० 64, 65 तथा श्री पचास्तिकाय गा० 62 टीका तथा श्री तत्त्वार्थसार तीसरे अजीव अधिकार का इलोक न० 43, प्रवचनसार गा० 16, 65 टीका, पचाध्यायी दूसरा भाग 1030 /
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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