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________________ ( 164 ) परन्तु समुद्र तो ऐसा का ऐसा ही पडा है, उसी प्रकार जायक भाव तो स्वभाव से पूर्णानन्द का नाथ त्रिकाली नित्यानन्द प्रभु अनन्त गुण का पिण्ड अनादि का ऐसा का ऐसा ही है। वह कोई तिरोभूत नही हुआ है / परन्तु जानने वाले की दृष्टि मे "रागादि वह मैं" ऐसे मिथ्याभाव की एकत्व बुद्धि होने से नायकभाव दृष्टि में नही आता होने की अपेक्षा तिरोभूत हो गया है। ऐसा कहा जाता है / प्रश्न ६६-द्रव्यसंग्रह गाथा 47 में क्या बताया है ? उत्तर-निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्ग दोनो एक साथ कालिक आत्मा मे एकाग्रता रूप निश्चय धर्मध्यान से प्रगट होते है।" प्रश्न ७०-अज्ञानी को ज्ञेयो के साथ मैत्री क्यो वर्तती है ? उत्तर-त्रैकालिक आत्मा ज्ञान स्वरूप है, जानना-देखना उसका त्रिकाल स्वभाव है। उस स्वभाव का अनुभव न करके जो ज्ञान की अनेक प्रकार की भिन्न-भिन्न जानने की क्रियायें होती हैं। उसमे ज्ञेय पदार्थ निमित्त हैं। परन्तु अज्ञानी को ऐसा लगता है कि निमित्त के कारण ज्ञान की भिन्न-भिन्न पर्याये होती हैं। जबकि ज्ञान की भिन्नभिन्न पर्याये अपने कारण से हुई है, ज्ञेय से नहीं हुई है। ऐसा न मानने से अज्ञानियो के ज्ञेय के (निमित्त-पर पदार्थों के) साथ मैत्री वर्तती है। प्रश्न ७१-सम्यग्दर्शन को मोक्ष महल को प्रथम सोही क्यो कहा है। उत्तर-(१) सम्यग्दर्शन होने पर एक चैतन्य चमत्कार मात्र प्रकाश रूप प्रगट है वह स्पष्ट प्रतीति मे आता है। (2) सम्यग्दर्शन होने पर जन्ममरण के दुखो का अन्त आ जाता है। (3) अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति होती है। इसलिए सम्यग्दर्शन को मोक्ष महल को प्रथम सीढी कहा है। प्रश्न ७२-संसारचक्र का मूल कारण कौन है और क्यो है ? उत्तर-ससार चक्र का मूल कारण एकमात्र मिथ्यात्व और रागद्वेष ही है, क्योकि मिथ्यात्व, राग-द्वेष के निमित्त से कर्मबंध होता
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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