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________________ ( 153 ) (1) जीव का स्वभाव जानने का है, पुद्गल का स्वभाव कुछ भी नही जानने का है, दोनो का एक-दूसरे से विरुद्ध स्वभाव है। (2) धर्म द्रव्य जीव-पुदगल को चलने मे निमित्त है, अधर्म द्रव्य उनको ठहरने मे निमित्त है, दोनो का स्वभाव एक-दूसरे से विरुद्ध है। (3) आकाश का स्वभाव तिर्यक प्रचय है, काल का स्वभाव ऊर्ध्व प्रचय है, दोनो का स्वभाव एक-दूसरे से विरुद्ध है। इनका अनादि अनन्त विरद स्वभाव होते हुए भी एक साथ रह सकते हैं और तेरे घर मे छह आदमी हैं। परमार्थ से सब ज्ञान स्वभावी हैं व्यवहार से रागी हैं। मान लो कि अल्पकाल के लिए कभी उनके साथ विरोध हो गया हो, फिर भी यदि तू उनके साथ सुमेल से रहना नहीं जानता, तो वीतरागी कैसे बन सकेगा ? इसलिए जब कि अनादि अनन्त विरुद्ध स्वभावी द्रव्य एक साथ रह सकते है, सो तुझे रहने मे कोई आपत्ति नही, ऐसा समझे तो जीवन मे शान्ति आवे। प्रश्न ३६-'कारण शुद्ध पर्याय' का विषय कैसा है ? उत्तर--कारण शुद्ध पर्याय का विषय बहुत सूक्ष्म और सरल है परन्तु प्रत्यक्ष ज्ञानियो के सत्समागम से समझने योग्य है। प्रश्न ३७-अपेक्षित भाव कौन-कौन से हैं और क्या ये भाव सम्यग्दर्शन के कारण नहीं है ? / उत्तर-औदयिक भाव, औपशमिक भाव, क्षायोपशमिक भाव क्षायिक भाव सापेक्ष है, उत्पाद-व्यय वाली पर्याय रूप है। जैसे-- समुद्र मे तरगें उठती है, उसी प्रकार आत्मा मे रागादि विकारी भावो अथवा उसके अभाव से प्रगट होने वाली निर्मल पर्याये हैं। यह सब अपेक्षित भाव है क्षणिक उत्पाद-व्ययरूप हैं इसलिए ये चारो भाव सम्यग्दर्शन के आश्रय भूत नही हैं / प्रश्न ३८-कारण शुद्ध पर्याय क्या है ? उत्तर-कारण शुद्ध पर्याय अर्थात् विशेष पारिणामिक भाव, वह निरपेक्ष है। इसमे औदयिक आदि बार भावो की अपेक्षा नही हैं।
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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