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________________ । ( ३ ) नियमसार गा० आया है । ( ५६ ) २, ३, ६०, तथा कलश १२१ में ( ४ ) समयसार गा० १५६ । (५) रत्नकरण्ड श्रावकाचार गा० २-३ में प्राया है 1 (६) छ ढाला तीसरी ढाल । प्रश्न (४७) - कैसा करने से ही मुक्त होगा ? उत्तर- 'मैं अनन्त गुणों का अभेद पिण्ड भूतार्थ स्वभावी भगवान आत्मा हूँ' ऐसा श्रद्धानादि करने से ही मुक्त होगा । प्रश्न (४८) -- कैसा करने से कभी भी मुक्त ना होगा ? उत्तर- नौ प्रकार के पक्षों मे पड़ने से कभी भी मुक्त ना होगा । · प्रश्न ( ४१ ) -- क्या जिनवर के कहे हुए व्रत, समिति को पालने से मुक्ति नही होगी । उत्तर - कभी भी नहीं होगी, क्योंकि समयसार गा० २७३ में लिखा है कि "जिनवर कथित व्रत, समिति को पालन करता हुआ मिथ्यादृष्टि पापी है तथा १५४ में नपुंसक कहा है । प्रश्न (५०) - ११ अंग ६ पूर्व के अभ्यास से क्या मुक्ति नहीं होगी ? उत्तर - कभी भी नहीं होगी क्योंकि कुन्दकुन्द भगवान ने समयसार गा० २७४ में लिखा मे है श्रात्म अनुभव हुए बिना शास्त्र पढ़ना गुणकारी नहीं है । तथा समयसार गा० ३१७ में जैसे सांप को दूध पिलावे तो जहर बढ़ता है; उसी प्रकार मिध्यादृष्टि के विशेष ज्ञान की चतुराई निगोद का कारण है । ·
SR No.010118
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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