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________________ ( १४१ ) प्रकार अज्ञानी जीव कहता है कि "प्रात्मा पर द्रव्य के कार्य को करता देखा जाता है। अरे भाई, जब आत्मा परद्रव्य का वृछ कर ही नहीं सकता तो तूने देखा कहां से । खोटी दृष्टि से अज्ञानी को जड़ की क्रिया चेतन करता हुमा भासित होता है । प्रात्मा ने यह क्रिया की, यह तो नजर नहीं आता। यह देखो हाथ में लकड़ी है। अब यह ऊची हो गयी, इसमें प्रात्मा ने क्या किया। प्रात्मा ने यह जाना तो सही कि लकड़ी पहले नीचे थी और अब ऊपर हो गई है । परन्तु प्रात्मा लकड़ी को ऊंचा करने में समर्थ नहीं हैं। अज्ञानी मानता है मैंने लकडी को ऊंची की है सो विपरीत मान्यता है। इनलिए (१) एक आत्मा दूसरी आत्मा का कुछ नहीं कर सकता है (२) एक प्रात्मा जड़ का कुछ नहीं कर सकता है (३) एक पुद्गल दूसरे पुद्गल का कुछ नहीं कर सकता है (४) एक पुद्गल प्रात्मा का कुछ नहीं कर मकता है ऐसा मानना सम्यग्ज्ञान है इससे उल्टा मानना महान पाप मिथ्यात्व है। प्र. ३६. जय-ज्ञायक संबन्ध किसने माना और जाना? उ० जिसने अपने प्राश्रय से सम्यग्दर्शनादि प्रगट किये उसने माना। प्र. ३७. संसार में ज्यादातर जनता कर्ता-कर्म भोक्ता-भोग्य की ही बातें __करतो है क्या यह सब पामम है ? वास्तव में निगोद मे मगाकर द्रव्य लिंगी मुनि तक सब पागम
SR No.010116
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages219
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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