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________________ YO उपलब्ध हैं- जिनोदयसूरि विवाहलउ, प्रजितशान्तिस्तवनम् और सीमन्धर स्वामी स्तवनम् तीनों ही भक्ति से सम्बन्धित हैं। पहले में गुरु भक्ति और अवशिष्ट दो में तीर्थंकर भक्ति है । जिनोदयसूरि विवाहलउ में प्राचार्य जिनोदय का दीक्षाकुमारी के साथ विवाह हुआ है । यह एक रूपक काव्य है । प्रजितशांतिस्तवनम् में सीमन्धर स्वामी की स्तुति की गयी है। ये दोनों ही स्तवन 'जैन -स्तोत्र संदोह' के प्रथम भाग में प्रकाशित हो चुके हैं । भट्टारक सकलकीत अपने समय के एक प्रसिद्ध विद्वान थे । उनका संस्कृत भाषा पर एकाधिपत्य था । उन्होंने संस्कृत में १७ ग्रन्थों की रचना की थी । प्रत्येक उत्तमकोटि का ग्रन्थ है । भट्टारक सकलकीर्ति प्रतिष्ठाचार्य भी थे। उनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियों में तत्कालीन इतिहास की अनेक बातें अ ंकित हैं । उनका समय १५ वीं शती का उत्तरार्द्ध माना जाता है । वे वि०सं० १४४४ में ईडर की मट्टारकीय गद्दी पर आसीन हुए और वि० सं० १४९६ में महसाना (गुजरात) में उनका स्वर्गवास हुआ। वे हिंदी के सफल कवि थे। राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में उनकी हिंदी में लिखी हुई अनेक कृतियां उपलब्ध हुई हैं, जिनमें प्राराधना प्रतिबोधसार णमोकारफलगीत श्रौर नेमीश्वर गीत का भक्ति से सम्बन्ध है | वि०स० की १६ वी शती, जैन हिन्दी भक्ति काव्य की मुक्तक रचनाओं के लिए प्रसिद्ध है। मुनि चरित्रसेन (वि० सं० १६ वी शती पूर्वार्द्ध) की 'समाधि' नाम की रचना में समाधि और समाधि लगाने वालों के प्रति भक्तिभाव प्रकट किया गया है। यह कृति दिल्ली के मस्जिद खजूर के जैन पंचायती मन्दिर के शात्र भण्डार में मौजूद है । इन्ही के समकालीन अानन्द तिलक हुए है । उन्होंने 'आणंदा' का निर्माण किया था । इसकी एक हस्तलिखित प्रति श्रामेर शास्त्र - भण्डार में रक्खी है । इस रचना में ४३ पद्य है । यह परमात्म प्रकाश और पाहुड दोहा की परम्परा में गिनी जा सकती है। संत कवियों की भांति ही मुनि महानन्दिदेव ने जिनेन्द्र का निवास देह में माना, वैसे ही जैसे कुसुम में परिमल रहता है । देह के भीतर रहने वाले उस चिदानन्दरूप जिनेन्द्र की जो पूजा करता है, भी वह स्वयं भी श्रानन्द - मण्डल के भीतर स्थिर हो जाता है । अर्थात उसको चिरन्तन श्रानन्द की प्राप्ति होती है। उन्होंने तीर्थ भ्रमण को व्यर्थ प्रमाणित करते हुए लिखा है- प्रानन्द तीर्थों में नहीं, अपितु प्रात्मा में है, और वह श्रात्मा प्रत्येक के पास होती है । जो वस्तु अपने पास है, उसकी नोर न देखकर बाहर भटकना मूर्खता है। मुनि जी ने कबीर की भांति ही कहा 155555555 फफफफफ
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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