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________________ हिन्दी के भक्ति-काल में जैन कवि और काव्य ४ यद्यपि रामचन्द्र शुक्ल ने भक्ति-काल वि० सं० १४०० से १७०० तक माना है, किन्तु जैन हिन्दी भक्ति काव्य की दृष्टि से उसको वि. सं. १८०० तक मानना चाहिए, क्योंकि जैन हिन्दी के भक्ति काव्य की प्रौढ़ रचना वि० सं० १७०० से १८०० के मध्य हुई। राजशेखर सूरि (वि. सं. १४०५) का जन्म प्रश्नवाहन कुल में हुआ था। वे तिलकसूरि के शिष्य थे। उनका सम्बन्ध कोटिक गरण की मध्यम शाखा के हर्षपुरीगच्छ से था उन्होंने हिन्दी में 'नेमिनाथफाग' की रचना की थी। यह २७ पद्यों का एक छोटा सा खण्डकाव्य है। इसमें नेमिनाथ और राजुल की कथा है । राजशेखर एक सफल कवि थे। भावों और दृश्यों को चित्रित करने में उन्होने अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया है। विवाह के लिए सजी राजुल के पूरे चित्र की कतिपय पंक्तियां देखिये : "किम किम राजुलदेवि तरणउ सिणगारु भरणेवउ । चंपइ गोरी अइधोई अंगि चंदनु लेवउ ॥ खुपु भराविउ जाइ कुसुम कस्तूरी सारी । सीमंतइ सिंदूररेह मोतिसरि सारी ॥" विनयप्रभ उपाध्याय (वि० सं० १४१२) खरतरगच्छ के जैन साधु थे। उनके गुरु का नाम दादा जिनकुशलसूरि था। उनकी प्रमुख रचना का नाम "गौतमरासा" है । यह कृति भगवान महावीर के प्रथम गणधर गौतम की भक्ति से सम्बन्धित है । इसमे स्थान स्थान पर उत्प्रेक्षाओं के सहारे गौतम की शोभा का चित्र अंकित किया गया है। इसके अतिरिक्त विनयप्रभ उपाध्याय की कृतियों में ५ स्तुतियां और हैं। उनमें विविध तीर्थंकरों के गुणों का काव्यमय विवेचन है। प्रत्येक में १६-२६ के लगभग पद्य है। इनमें 'सीमन्धर स्वामिस्तवन', एन्शियंट जैनहिम्स' में प्रकाशित हो चुका है। सीमन्धर स्वामी पूर्व विदेह के विहरमाण बीस तीर्थ करों में एक हैं। उनका शासन अभी चल रहा है। यह २१ पद्यों का एक मनोरम स्तवन है । कवि ने लिखा है कि मेरुगिरि के उत्तुंग शिखर, गगन के टिमटिमाते तारागण और समुद्र की तरंगमालिका, सीमंधर स्वामी का स्तवन करते ही रहते हैं। मेरुनन्दन उपाध्याय के दीक्षागुरु का नाम जिनोदयसूरि था। उन्होंने वि० सं० १४१५ के उपरान्त दीक्षा ली थी। मेरुनन्दन उपाध्याय की तीन रचनाएं फफफफफK४७))))
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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