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________________ KARMAna ANAVACADE HARE LAama प्राचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में श्रद्धा को ही भक्ति कहा गया है। 'पाइप-सह-महाण्णवो' में भी भक्ति के पर्यायवाचियों में सेवा के साथ श्रद्धा की भी गणना है । प्राचार्य समन्तभद्र ने समीचीन धर्मशात्र में श्रद्धान और भक्ति का एक ही अभिप्राय माना है। वे प्राप्तादि के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। माचार्य उमास्वाति ने 'सम्यग्दर्शन' के 'दर्शन' शब्द का अर्थ श्रद्धान ही लिया है। उन्होंने तत्वज्ञान के पहले तत्वश्रद्धान को इष्ट माना है। उनकी दृष्टि से तत्वज्ञान तत्वश्रद्धान के बिना नहीं हो सकता। प्राचार्य कुन्द-कुन्द ने लिखा है कि प्रात्मदर्शन ही सम्यग्दर्शन है, किन्तु अकलंकदेव का मत है कि प्रात्मा का दर्शन तब तक नहीं हो सकता, जब तक वैसा करने की श्रद्धा जन्म न ले। श्रावक शब्द के 'श्रा' का अर्थ भी श्रद्धा ही लिया गया है। अभिधान राजेन्द्रकोश में लिखा है, "श्रन्ति पचन्ति तत्वार्थश्रद्धानं निष्ठा नयन्तीति श्राः ।" श्रावक श्रद्धा के द्वारा ही आत्मसाक्षात्कार का फल पा जाता है । वह अपनी आत्मा को देखने का प्रयास नहीं करता, किन्तु जिनेन्द्र में श्रद्धा करता है । जिनेन्द्र और आत्मा का स्वभाव एक ही है। अत: वह जिनेन्द्र की श्रद्धा से अपनी शुद्ध प्रात्मा को जान जाता है किन्तु यह श्रद्धा सम्यक् श्रद्धा होनी चाहिए, अन्ध श्रद्धा का यत्किचित् मूल्य भी जैन शास्त्रों में नहीं मांका गया। अपनी सुश्रद्धा के कारण ही प्राचार्य समन्तभद्र जिनेन्द्र के दृढ़ भक्त बन सके थे। इसका अर्थ है कि जैन आचार्यों ने सुश्रद्धा के प्रगाढ़ रूप को ही भक्ति कहा है । निशीथचूरिण में, "अब्भुट्ठाणदंडग्गहण-पाय-पुच्छरणासरणप्पदाणगहरणादीहि सेवा ना सा भत्ति" लिखा है। इसका अर्थ है-प्राचार्य के सम्मान में खड़े हो जाना, दण्ड ग्रहण करना, पांव पोछना, आसन देना आदि जो सेवा है, वह ही भक्ति है। राजेन्द्रकोश में, “सेवायां भक्तिविनयः", कह कर भक्ति का अर्थ सेवा तो लिया ही है, सेवा का अर्थ भी विनय किया है। प्राचार्य उमास्वाति ने एक सूत्र में विनय के 'ज्ञान-दर्शन चरित्रोपचारः" रूप में चार भेद माने हैं। इनमें उपचार विनय का सेवा से सीधा संबंध है। प्राचार्य पूज्यपाद ने उपचार विनय प्राचार्यों के पीछे-पीछे चलने, सामने आने पर खड़े हो जाने, अंजलिबद्ध होकर नमस्कार करने को कहा है । इस भांति यह सिद्ध हुआ कि जिनेन्द्र के अनुराग, श्रद्धा और सेवा करने को भक्ति कहते हैं। किन्तु प्रश्न तो यह है कि जैन सिद्धान्त के अनुसार जिनेन्द्र न कर्ता है और न भोक्ता, फिर भक्त अपनी स्तुतियों में उसको कर्त्ता क्यों कहता है ? इसका उत्तर देते हुए आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है-वीतराग भगवान 555/55 55 55 55 55 < DE $555 55 55 551
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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