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________________ ईसवी ] ने अपने 'भाव संग्रह' में पंच परमेष्ठी के ध्यान का वर्णन अनेक दोहों में किया है। आचार्य सोमदेव के 'यशस्तिलक' (वि० सं० १०१६) और प्राचार्य वसुनन्दि के 'वसुनन्दि श्रावकाचार ( वि० सं० १२वीं शताब्दी) में भक्ति के अनेक - उपांगो की व्याख्या प्राप्त होती है । जैन मंत्र ग्रन्थ देव देवियों की भक्ति से सम्बन्धित हैं । इनमें श्राचार्य मल्लिका 'भैरव पद्मावतीकल्प' अत्यधिक प्रसिद्ध है । इसमें देवी पद्मावती की साधना के लिए विविध मंत्रों का निर्माण किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र की 'अभिधान चिन्तामरिण' में भी देवियों की साधना से सम्बन्धित सिद्धान्त का उल्लेख हुआ है । जैन भक्ति का स्वरूप प्राचार्य देवनन्दि पूज्यपाद ने 'सर्वार्थसिद्धि' में लिखा है 'अर्हदाचार्येषु बहुश्रतेषु प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्ति:' । इसका तात्पर्य है कि प्रर्हन्त, प्राचार्य, और प्रवचन में भाव विशुद्धि-युक्त होकर अनुराग करना भक्ति है । श्राचार्य सोमदेव ने भी 'यशस्तिलक' में, "जिने जिनागमे सूरौ तपःश्रुतपरायणे । सद्भावविशुद्धिसम्पन्नोऽनुरागो भक्तिरुच्यते ॥ " लिखा है । किन्तु प्रश्न तो यह है कि उस वीतराग भगवान् में जो स्वयं राग रहित है और जो राग त्यागने का उपदेश देता है, अनुराग कैसे सम्भव है ? राग कैसा ही हो कर्मों के बन्ध का कारण है । आचार्य कुन्दकुन्द के कथनानुसार वीतराग भगवान में किया गया अनुराग पाप के बन्ध का यत्किचित् भी कारण नही है । उनकी दृष्टि से पंचपरमेष्ठी में राग करने वाला सम्यग्दृष्टि हो जाता है । श्राचार्य योगीन्दु का कथन है कि 'पर' में होने वाला राग ही बन्ध का हेतु है, 'स्व' में होनेवाला नहीं । वीतरागी परमात्मा 'पर' नहीं, अपितु 'स्व' आत्मा हो है । अतः जिनेन्द्र में राग करना अपनी आत्मा में ही प्रेम करना है । 'स्व' में राग करने वाला मोक्षगामी होता है । I इसके अतिरिक्त वह ही राग बन्ध का कारण है, जो सांसारिक स्वार्थ से प्रेरित होकर किया गया हो । निष्काम अनुराग में कर्मो को बांधने की शक्ति नही होती । वीतराग में किया गया अनुराग निष्काम ही है । वीतराग पर रीझकर ही भक्त ने वीतराग में अनुराग किया है। इसके उपलक्ष्य में यदि वीतराग भगवान अपने भक्त में अनुराग करने लगे, तो भक्त का रोझना ही समाप्त हो जायगा । वह भगवान से अपने ऊपर न दया चाहता है, न अनुग्रह और न प्रेम । 555555555555 ගමේ
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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