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________________ KARNAKAMANARTH ASA सयलवि मेल्लंति ।' अर्थात् सकल विकल्पों का विलीन होना ही परम समाधि है, इसमें मुनिजन शुभ और अशुभ भावों का परित्याग कर देते हैं। अपने इसी मत की पुष्टि करते हुए प्राचार्य ने एक-दूसरे स्थान पर कहा है कि "जब तक समस्त शुभाशुभ परिणाम दूर न हों, मिटे नहीं, तब तक रागादि विकल्प-रहित शुद्ध चित्त में सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र रूप शुद्धोपयोग जिसका लक्षण है, ऐसी परम समाधि इस जीव के नहीं हो सकती।"२ उन्होंने यहां तक कहा कि" केवल विषय कषायों को जीतने से क्या होता है, मन के विकल्प मिटाने ही चाहिए, तभी वह परमात्मा का सच्चा आराधक कहा जायेगा।"3 प्राचार्य कुन्दकुन्द ने 'षट्पाहड' में लिखा है कि "जो रागादिक अन्तरंग परिग्रह से सहित हैं और जिन भावना रहित द्रव्य-लिंग को धार कर निर्ग्रन्थ बनते हैं, वे इस निर्मल जिन-शासन में समाधि और बोधि को नहीं पाते।"४ इस भांति प्राचार्य कुन्दकुन्द ने रागादिक अन्तरंग परिग्रह के त्याग को समाधि के लिए आवश्यक बतलाया। बाह्य ज्ञान से शून्य निर्विकल्पक समाधि में विकल्पों का प्राधार भूत जो मन है वह अस्त हो जाता है, अर्थात् निज स्वभाव में मन की चंचलता नहीं रहती। जिन मुनीश्वरों का परम समाधि में निवास है, उनका मोह नाश को प्राप्त हो जाता है, मन भर जाता है, श्वासोच्छवास रुक जाता है और कैवल्य ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। प्राचार्य समन्तभद्र ने यह स्वीकार किया है : स्वदोषमूलं स्वसमाधितेजसा, निनाय यो निर्दयभस्मसात्क्रियाम् । जगाद तत्वं जगतेऽथिनेऽञ्जसा, बभूव च ब्रह्मपदामृतेश्वरः ।।' अर्थात् समाधि-तेज से अपने आत्म-दोषों के मूल कारण को निर्दयतापूर्वक भस्म कर यह जीव ब्रह्म-पदरूपी अमृत का स्वामी हो सकता है। १. प्राचार्य योगीन्दु, परमात्मप्रकाश, डा० ए० एन० उपाध्ये-सम्पादित, दोहा १६०, पृ. ___३२८, प्र० मंडल, बम्बई । २. देखिये वही, दोहा १६४, पृ० ३३२ । ३. देखिये वही, दोहा १६२, पृ० ३३१ । ४. प्राचार्य कुन्दकुन्द, पट्पाहुड, मावपाहुड, ७२ वीं गाथा पृ० ७८, प्रकाशक बाबू सूरजमान वकील, देवबंद । ५. प्राचार्य योगीन्दु, परमात्मप्रकाश, डा० ए० एन० उपाध्ये-सम्पादित, दोहा १६२, पृ० ३०६, बम्बई। ६. प्राचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भू-स्तोत्र, ११३, वीर-सेवा मन्दिर, सरसावा । . .... ..... .... . . . . . .. micr s a .. .:..-.- S MARTPHATTER MOTIME RAHESHSHEPHRail -.- .- .-. - - :..:.. monia NMENTrneareyanssenaamany HTTERTAfrikaDARA
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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