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________________ S SAMRIOREACT अर्थात् जिस व्रत में सब प्राणियों में समता-भाव, इन्द्रिय-संयम, शुभभावना का विकास तथा प्रात्तं और रौद्र ध्यानों का त्याग किया जाता है, वह सामायिक व्रत कहलाता है । सामायिक के पांच प्रतिचार हैं-मन-वचन-काय का प्रसत्-प्रयोग, अनुत्साह और अनैकाग्रता।' इनसे सामायिक में दोष उत्पन्न हो जाते हैं । इस भांति एकाग्रता सामायिक का गुण और अनैकाग्रता दोष है। इसी एकाग्रता का विकसित रूप समाधि का मूलाधार है । वास्तव में सामायिक गृहस्थ श्रावकों का एक व्रत है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने इसे शिक्षा-व्रतों में गिना है।' स्वामी कीर्तिकेय ने अपने 'अनुप्रेक्षा' नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ में गृहस्थ के बारह धर्मों में सामायिक को चौथा स्थान दिया है । प्राचार्य उमास्वाति, समन्तभद्र, जिनसेन, सोमदेव, देवसेन, अमितगति, अमृतचन्द्र, प्राचार्य वसुनन्दि और पंडित प्रवर पाशाधर ने भी सामायिक के महत्व को स्वीकार किया है। उन्होंने यहां तक कहा है कि सामायिक में स्थित गृहस्थ सचेलक मुनि के समान होता है। सामायिक कम से कम दो घड़ी या एक मुहूर्त (अड़तालीस मिनट) तक करनी चाहिए। निर्विकल्प समाधि में मन को टिकाने के लिए किसी पालम्बन की पावश्यकता नहीं होती। यहां तो 'रूपातीत' का ध्यान करना होता है । शरीर के जाल से पृथक् शुद्धात्मा अथवा भगवान सिद्ध ही 'रूपातीत' कहलाते है। उन पर जब मन ठहर उठता है, तभी निर्विकल्प समाधि का प्रारम्भ समझना चाहिए। प्राचार्य योगीन्दु ने निर्विकल्प समाधि की परिभाषा बतलाते हुए लिखा है- सयलवियप्पहं जो बिलउ परम समाहि मणंति । तेरण सुहासुह भावड़ा मुणि १. देखिये वही, ५।१५, पृ० १४२ । २. प्राचार्य कुन्दकुन्द, चरित्रपाहुड, गाथा २६ । ३. प्राचार्य समन्तभद्र, समीचीनधर्मशास्त्र, ५॥१२, पृ० १३६, वीर-सेवा मन्दिर, दिल्ली, १९५५ ई०। ४. वसुनन्दिश्रावकाचार की प्रस्तावना, पं० हीरालाल-कृत, पृ० ५५, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी। ५. वण्णरस-गंध-फासेहिं वज्जिनो णाण-दसण सरूवो। जंझाइज्जद एवं तं झारण रूव रयिं ति ॥ ४७६ ।। -वसुनन्दि, वसुनन्दिश्रावकाचार, पं० हीरालाल सम्पादित, पृ० २८०, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी। 5555555K१७ माप
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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