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________________ Sam i rsinakaitram ENCY के लिए प्रसिद्ध था । बाल्यावस्था में जीवंधर ने आर्यनन्दि नाम के एक जैनाचार्य के पास शिक्षा प्राप्त की थी। भार्यनन्दि ने शस्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा दी थी। जीवंधर के शस्त्र-कौशल ने उन्हें राज्य दिलवाया और शास्त्र नैपुण्य ने वीतरागी भावनाओं के अंकुर को पनपाया। एक दिन महावीर के पास जाकर दीक्षा ले ली । राजा श्रेणिक ने महावीर के समवसरण के बाहर परिणवृक्ष के नीचे जिस तेजस्वी मुनि को तप-निरत देखा था, वे मुनि जीवंधर ही थे। वे श्र तज्ञान के धारी थे और महावीर के साथ ही उनका भी निर्वाण होना था। वे इतिहास में वीर श्रमण जीवंधर के नाम से प्रसिद्ध हैं।' भगवान महावीर का समवसरण प्रारम्भ हो चुका था, किन्तु देवगण विमानों में उड़ते हुए समवसरण में न पाकर कहीं अन्यत्र चले जा रहे थे। यह एक आश्चर्य का विषय था । किसी ने भगवान से इसका कारण पूछा, तो उन्होंने कहा कि महाराज जितारि का निर्वाण हुआ है, ये उनका निर्वाणोत्सव मनाने जा रहे हैं । २ महाराज जितारि या जितशत्रु कलिङ्ग के सम्राट थे और रिश्ते में महावीर के फूफा लगते थे। उनका निर्वाण खण्डगिरि में हुआ था। तभी से खण्डगिरि सिद्धि क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है । सम्राट खारवेल (ई० पूर्व द्वितीय शताब्दी ) के शिलालेख में इसको 'प्रहनिषिद्या' कहा गया है । इस विषय में बाबू छोटेलालजी के अन्वेषण का एक उद्धरण देखिए, “अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी के फूफा कलिंगाधिपति महाराज जितशत्रु या जितारि का निर्वाण मेरे अनुमान से खण्डगिरि में ही हुआ था। और उन्ही के सम्बन्ध से यह सिद्धिक्षेत्र हो जाने के कारण सहस्रों निम्रन्थ मुनियों ने इस स्थान को तपोभूमि बनाया था। ई० पूर्व द्वितीय शताब्दी में होने वाले कलिंग चक्रवर्ती महाराज खारवेल ने भी अपना अन्तिम साधु जीवन यहा ही व्यतीत किया था।"3 सम्राट खारवेल ने अपना प्रसिद्ध शिलालेख इसी गुफा में क्यों उत्कीर्ण करवाया ? इस पर बाबूजी का पुरातात्विक विवेचन इस प्रकार है, “मेरे अनुमान से उपर्युक्त श्री जितारि मुनि ने इसी हाथी गुफा में तपश्चरण करते हुए निर्वाण प्राप्त किया था और उसे तीर्थ बनाया था, जिससे वहां हजारों यात्री वन्दना के लिये और हजारों मुनि तपश्चरण के लिये सैकड़ो वर्षों से आते रहे हैं। अत: विशेष प्रचार १. जीवंधर की कथा के लिए देखिए उत्तरपुराण । २. देखिए हरिवंश पुराण ।। ३. बाबू छोटेलाल जी, खण्डगिरि-उदयगिरि-परिचय, अनेकान्त, वर्ष ११ किरण १, मार्च १६५२, पृ० ८१। 55 55 55 55 55 55 55 55 55 55 55 55 5 4 4 MARDORAND RAudhi
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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