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________________ . . . . का शताधिक बार प्रयोग हुआ है । गौतमबुद्ध उन्हें 'निगण्ठनातपुत्त' कहा करते थे।' जैन पुराणों, चरित्रों, कथा-ग्रन्थों और स्तुति-स्तोत्रों में महावीर के पंचकल्याणकों का भक्ति-परक विवेचन हुआ है। तीसरे तप-कल्याण के प्रारम्भ में जैन तीर्थकर वैराग्य की ओर उन्मुख होता है। प्रत्येक तीर्थङ्कर का अपना एक विशेष संयोग है, जिससे उसकी मानस धारा वीतरागी दीक्षा की ओर मुड़ती है। सम्राट ऋषभदेव के दरबार में नीलांजना नाम की एक अप्सरा नृत्य करते-करते ही दिवंगत हो गई । जीवन की इस क्षण भंगुरता से युवा ऋषभदेव के हृदय में वैराग्य का संचार हुमा । दुल्हा के वेश में सजे नेमिनाथ दीन पशुओं की करुण पुकार से वीतरागता की ओर झुके। विश्व की अनिंद्य सुन्दरी राजीमती से विवाह नहीं किया । एक मनोवैज्ञानिक की दृष्टि में ये बाह्य प्रसंग एक व्यक्ति के जीवन को तभी परिवर्तित कर पाते हैं, जब उसमें 'असंयोजितप्रसंग' के अनुकूल प्रबल सस्कार रहा हो । भले ही जैन तीर्थकरों का बाल और यौवन वैभवसम्पन्न वातावरण में बीता हो, किन्तु वीतरागता उनके खून में व्याप्त थी। महावीर का वैराग्य किसी बाह्य-प्रसंग पर नही, अपितु उनके अपने अध्ययन और चिंतन पर आधारित था। उनके पूर्व जन्म की अनुभूतियां उभरी और उन्होंने अपने माता-पिता से दीक्षा के लिए अनुमति चाही। दो वर्ष तक उनकी और उनके माता-पिता की इच्छा-शक्तियों में संघर्ष चलता रहा। जीत महावीर की हुई और वे सब की खुशियों के बीच तप करने चले गये । वे संसार से भागे नहीं, डरे नहीं । उन्होंने कुछ को छोड़ा सब को पाने के लिये । अपने को पाये बिना सबको नहीं पाया जा सकता, अतः उन्होंने अपने को पाने का प्रयास किया। उनका प्रयास आध्यात्मिक था । आध्यात्मिक साधना का अर्थ है सत्य और अहिंसा । कोरा सत्य नहीं, कोरी अहिंसा नहीं। इनमें से एक पर किया गया आग्रह एकांकी हो सकता है, अतः महावीर ने समन्वयात्मक पथ का उद्योतन किया । गान्धी ने भी इस रहस्य को समझा था। अन्यथा उनके सत्याग्रह का रचनात्मक रूप अहिंसक कैसे होता। इस साधना से महावीर ने अपने को पाया और उसके साथ ही विश्व को। उनकी चेतना ने विश्व व्यापी रूप धारण किया। १. धम्मपदट्ठ कथा, जिल्द तीसरी, पालिटेक्स्ट सोसाइटी, पृ० ४८६ । PAGE ANTagram ऊ55555
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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