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________________ AREERE - --- - RECENSE EMAMASTES LNPaanaheenam Pu n e NEELA JAWAJ . AL का कथन है, "अपभ्रश के साहित्य को श्रीवृद्धि में जैन कृतिकारों का योग प्रसाधारणा है। जब अपनश बोलचाल की भाषा नहीं रह गई थी और उसका स्थान माधुनिक प्रार्यभाषामों ने ले लिया था, उसके बाद भी सात प्राठ,शताब्दियों तक जैन कृतिकारों ने अपभ्रंश की जो सेवा की, वह भारतीय साहित्य के इतिहास में ध्यान देने की वस्तु है।" जैनेतर कवियों ने भो अपम्रश में लिखा, किन्तु वह उपलब्ध कम ही होता है। बौद्ध सिद्धों की रचनाएँ तो प्राप्त भी हैं। इसके अतिरिक्त, 'प्राकृत पैंगल' में और अन्य जैन प्रबन्धों में अनेक ऐसे उद्धरण हैं, जो जनेतर कवियों ने लिखे थे। अपभ्रंश का समृद्ध साहित्य था। वह प्राकृत और प्राधुनिक प्रार्यभाषामों के मध्य, शताब्दियों तक प्रतिष्ठित बना रहा-पहले बोलचाल के रूप में, फिर साहित्यिक पद पर। इधर, जैन ग्रन्थभण्डारों में पर्याप्त अपभ्रंश साहित्य मिला है और मिल रहा है। उसके सम्पा दित पौर प्रकाशित होने पर विद्वानों के अनेक भ्रमों का उन्मूलन होगा, ऐसी सम्भावना है। प्राकृत व्याकरण लिखते समय पिशेल के पास अपभ्रंश की प्रत्यल्प सामग्री थी। उन्होंने अपने प्राकृत व्याकरण के परिशिष्ट रूप में उपलब्ध अपभ्रश सामग्री को 'मातेरियाल्यन केन्त्रिस, त्सूर अपभ्रंश' के नाम से दिया। इसमें उन्होने केवल-कालिदास के विक्रमोर्वशीय के कुछ अपभ्रंश पद्य, चंड के प्राकृत व्याकरण में आया एक अपभ्रश पद्य, हेमचन्द्र शब्दानुशासन में उदाहृत अपभ्रश के दोहे तथा दशरूपक, ध्वन्यालोक और सरस्वतीकण्ठाभरण में समाहृत अपभ्रंश पद्यों को ही आधार बना पाया था। इससे अधिक अपभ्रंश साहित्य, उस समय तक विदित ही नहीं हो सका था। यह कहा जाता था कि अपभ्रंश साहित्य लुप्त हो गया है। पिशेल ने इतनी अल्प सामग्री के आधार पर, अपभ्रंश के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा, वह आज भी अनुपम है । जर्मन के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. हरमन याकोबी, सन् १९१३-१४ में भारतवर्ष में आये। उन्हे जैन शास्त्रों के अध्ययन में ख्याति मिल चुकी थी। उन्होंने अहमदाबाद के जैन ग्रन्थ भण्डार को टटोला। उन्हें एक जैन साधु के पास धनपाल धक्कड़ की भविसयत्तकहा प्राप्त हुई। एक अन्य जैन साधु के पास उन्हें अपभ्रंश का 'नेमिनाथ चरित' भी मिला। वे इन दोनों ग्रन्थों को जर्मन १. प्रद्युम्न चरित, पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ सम्पादित, जैन साहित्य शोध संस्थान, जयपुर, १६६०, प्राक्कथन, डॉ० माताप्रसाद गुप्त लिखित, पृ० ४ ।
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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