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________________ शास्त्र भण्डार, जयपुर में मौजूद है। दूसरी प्रति, मैंने दिल्ली के जैन पंचायती मन्दिर में देखी है। अब तो शायद उसका प्रकाशन भी किसी पत्र-पत्रिका में हो गया है । प्रागंदा में ४४ पद्य हैं । भाषा प्रपभ्रंश-बहुल होते हुए भी बोलचाल के शब्दों से गतिशील बनी है। निश्चित रूप से वह १४वीं शताब्दी की रचना है श्री रामसिह की विचार-परम्परा का प्रतीक । आगे, कबीर श्रादि संत कवियों पर उसका प्रभाव देखा जा सकता है। मैंने ऐसा "जैन अपभ्रंश का हिन्दी के निर्गुण काव्य पर प्रभाव' में दिखाया भी है। यह एक सरस कृति है । 'थूलभद्दफागु' प्रादिकालीन हिन्दी का गौरवपूर्ण काव्य है । जिनपदमसूरि ने इसकी रचना वि० सं० १४ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में की थी। इसमें, कोशा (वेश्या) के मादक सौन्दर्य के परिप्रेक्ष्य में एक अडिग तपस्वी का चित्र है । वह भाषा की सहज तूलिका से और भी जीवन्त बना है। प्रत्येक पाठक किसी जाति और धर्म का हो, किसी देश और काल का हो, इसे पढ़कर विमुग्ध हो उठेगा, ऐसा मुझे विश्वास है । राजशेखर सूरि ने वि० सं० १४०५ में नेमिनाथ फागु की रचना की थी । यह भी एक सामर्थ्यवान रचना है। मैंने इसका विवेचन 'हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि' में किया है। इसकी प्रशंसा में डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन दृष्टव्य है, "जिस प्रकार राधासुधानिधि में राधा की शोभा के वर्णन में कवित्व है और वह कवित्त्व उपास्यबुद्धि से चालित है, उसी प्रकार राजलदेवी की शोभा में कवि व है और वह उपास्यबुद्धि से चालित भी है । कोन कह सकता है कि इस शोभा वर्णन में केवल धार्मिक भावना होने के कारण कवित्व नहीं है । "9 इस प्रकार पं० रामचन्द्र शुक्ल के तथाकथित 'वीरगाथा काल' में वीर ही नहीं समरूप से श्रृंगार और शान्त रस भी प्रधान थे । अतः केवल 'वीरगाथा काल' नितान्त अनुपयुक्त नाम है। इस काल की भाषा, यद्यपि अपभ्रंश- बहुल थी, किन्तु तत्कालीन बोलियों के सम्मिश्रण से एक ऐसी सरस भाषा का जन्म हुआ, जिसमें विविध चरिउ, रास और फागु तथा मुक्तक गीतों की रचना सम्भव हो सकी । उनको केवल नोटिस मात्र कहकर नहीं छोड़ा जा सकता । इसी प्रकार अपभ्रंश के साहित्य निर्माण में भी जैन भाचार्यों का महत्वपूर्ण योग रहा है । इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता। डॉ० माताप्रसाद गुप्त १. हिन्दी साहित्य का प्रादिकाल, पटना, पृ० १२-१३ । 645 45 45 46 46554 55555556
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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