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________________ Samme हो जाये कि, वह स्वयं भगवान् है तो संसार के सभी दुख स्वतः उपशम हो जायजहाँ-के-तहाँ पड़े रहें । संसार में जन्म लेने के साथ ही यह जीव विस्मरणशील मनोवेग साथ लाता है । कस्तूरी मृग को यह विदित नहीं रहता कि वह सुगन्धि उसकी नाभि में मौजूद है, जिसके लिए वह भटकता फिरता है । मन्दिर, मस्जिद और काबे में परमात्मा को ढूढनेवाला यह जीव नहीं जानता कि वह तो उसके भीतर ही रहता है । इसीलिए जीव अज्ञानी कहलाता है। इसीलिए वह सांसारिक पाकुलतामों में व्याकुल बना रहता है। उसकी शांति का सबसे बड़ा उपाय है कि वह अपने को पहचाने । पाण्डे रूपचन्द्र ने लिखा है अपनो पद न विचारि, के अहो जगत के राय।। भव वन छायक हो रहे, शिवपुर सूधि विसराय ।। भव-भव भरमत ही तुम्हें, बीतो काल अनादि । अब किन घरहिं संवारई, कत दुख देखत वादि ।। परम प्रतीन्द्रिय सुख सुनो, तुमहिं गयो सुलझाय । किचित् इन्द्रिय सुख लगे, विषयन रहे लुभाय ।। विषयन सेवत हो भले, तृष्णा तो न बुझाय । ज्यों जल खारो पीवतै, बाढ़े तिस अधिकाय ।।' श्री सुमित्रानन्दन पंत ने 'परिवर्तन' में लिखा है, "मूदती नयन मृत्यु की रात, खोलती नवजीवन की प्रात, शिशिर की सर्व प्रलयंकर वात, बीज बोतो अज्ञात ।” उनका तात्पर्य है कि मौत में जन्म और जन्म में मौत छिपी है। यह संसार अस्थिर है। जीवन अमर नहीं है । संसार के सुख चिरन्तन नहीं हैं। श्री पंत जी की कविता का स्वर 'जैन टोन' है। यदि यह कहा जाये कि पंत जी की अन्य कविताओं का आध्यात्मिक स्वर जैन परम्परा से ह-बहू मिलता-जुलता है, तो अत्युक्ति न होगी। जैन सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में उन सबका अध्ययन होना आवश्यक है। अठारहवी शताब्दी के प्रारम्भ (१७०५) में एक जैन कवि पं० मनोहरदास हुए हैं । भावधारा की दृष्टि से उन्हें श्री पंत जी का पूर्व संस्करण ही कहा जा सकता है। उन्होंने एक जगह लिखा है, "हे लाल ! दिन-दिन प्राव घटती है, जैसे अंजली का जल शनैः शनैः रिस कर नितांत च जाता है । संसार की कोई वस्तु स्थिर नहीं है, इसे मन में भलीभांति समझ ले । तूने अपना बाल १. देखिए, पाण्डे रूपचन्द जी रचित परमार्थी दोहा शतक', यह 'रूपचन्द-शनक' के नाम से 'जैन हितैषी' भाग ६, अंक ५-६ में प्रकाशित हो चुका है 15155 4 5 4 5 5 5 5 5 5 5 5 5 557
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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