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________________ मंगलाचरण भी ऐसा ही है। उन्होंने भी राजा, प्रजा और मुनि, सभी के लिए शान्ति चाही है।' शान्ति दो प्रकार की होती है-शाश्वत और क्षणिक । पहली का सम्बन्ध मोक्ष से है और दूसरी का भौतिक संसार से । भक्त जन दोनों के लिए याचना करते रहे हैं । जिनेन्द्र की अनुकम्पा से उन्हें दोनों की प्राप्ति भी हुई है। इस दिशा में जैन मंत्रों का महत्वपूर्ण योग रहा है। जैनों का प्राचीन मंत्र 'रणमो प्ररिहन्तारणं मंत्र है। इसमें पंच परमेष्ठी को नमस्कार किया गया है। पूरा मंत्र है "णमो अरिहन्ताणं, णमो सिद्धाणं, णमो पायरियारणं, मो उवज्झायारणं, णमो लोएसव्वसाहूणं।" इसका अर्थ है--अर्हन्तों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, प्राचार्यों को नमस्कार हो,उपाध्यायों को नमस्कार हो और लोक के सर्व साधुनों को नमस्कार हो। जैन प्राचार्यों ने इस मंत्र में अपूर्व शक्ति स्वीकार की है। भद्रबाहु स्वामी ने अपने 'उवसग्गहर स्तोत्र' में लिखा है, "तुह सम्मत्ते लढे चिंतामणिकप्प पायवब्भहिए । पावंति अविग्घेणं जीवा अयरामरं ठाणं ।।"२ इसका तात्पर्य है कि पंचनमस्कार मंत्र से चिंतामणि और कल्पवृक्ष से भी अधिक महत्वशाली सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है, जिसके कारण जीव को मोक्ष मिलता है । प्राचार्य कुन्दकुन्द का विश्वास है, "अरुहा, सिद्धायरिया उवझाया साहु पंचपरमेट्ठि । एदे पंचरणमोयारा भवे भवे मम सुहं दितु ॥"3 अर्थात् अर्हन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु मुझे भव-भव में सुख देवें। प्राचार्य पूज्यपाद का कथन है कि यह 'पंच नमस्कार' का मंत्र सब पापों को नष्ट करने वाला है और जीवों का कल्याण करने में सबसे ऊपर है। मुनि वादिराज ने 'एकीभाव स्तोत्र' में लिखा है, "जब पापाचारी कुत्ता भी णमोकार मंत्र को सुनकर देव हो गया, तब यह १. शान्तिः स्याज्जिनशासनस्य सुखदा शान्ति पाणां सदा, सुप्रजाशांतयोभरभृतां शान्तिमुनीनां सदा । श्रोतयां कविताकृतां प्रवचनव्याख्यातकाणां पनः. शान्ति शान्तिरयाग्नि जीवनमुचः श्री सज्जनस्यापि च ।। पण्डित श्री मेधावी, धर्मसंग्रहश्रावकाचार, अन्तिमप्रशस्ति, प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, १९५० ई०, ३५वा श्लोक, पृ० २५ । २. उवसग्गहरस्तोत, चौथीगाथा, जनस्तोत्रसन्दोह, भाग २, मुनिचतुरविजय सम्पादित, अहमदाबाद, वि० सं० १६६२, पृ० ११। ३. 'पंचगुरुभक्ति', सातवी गाथा, दशभक्तिः, शोलापुर, १९२१ ई०, पृ० ३५८ । ४. एष पंचनमस्कारः सर्वपापप्रणाशनः । मंगलानां च सर्वेषां प्रथमं मंगलं भवेत् ॥ देखिए वही, सातवा श्लोक, पृ०३५३ । 54 455 56 TOYS 55.55
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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