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________________ एक अंश की पूर्ति भर है। सूर का सानी नहीं । किन्तु जैन काव्यों में वात्सल्य भाव के विविध दृश्य उपलब्ध होते हैं। जैन कवियों ने तीर्थंकरों के बाल रूप का चित्राङ्कन किया है। इस विषय की प्रसिद्ध रचना है 'आदीश्वर फागु' | उसके रचयिता भट्टारक ज्ञानभूषरण एक समर्थ कवि थे । यानतराय, जगतराम, बुचराज आदि ने भी प्रदीश्वर की बालदशा का निरूपण किया है। सूरदास को जितना ध्यान बालक कृष्ण पर जमा, बालिका राधा पर नहीं । बालिकाओं का मनोवैज्ञानिक वर्णन सीता, अञ्जना और राजुल के रूप में, जैन पद काव्यों मैं उपलब्ध होता है । ब्रह्म रायमल्ल के 'हनुमन्त चरित्र' में हनूमान के बालरूप का प्रोजस्वी वर्णन है । वह उदात्तता परक है, मधुरता परक नहीं । जैन कवियों का अधिकांश बाल रूप तेजस्विता का निदर्शन है । इससे सिद्ध है कि उस पर श्रीमद्भागवत का प्रभाव नहीं था । जैन काव्यों में बालरस से सम्बन्धित गर्भ और जन्मोत्सव की अपनी शैली है । वह उन्हें परम्परा से मिली है। इन उत्सवों के जैसे चित्र जैन काव्यों में उपलब्ध होते हैं, सूरसागर में नहीं । सूरदास, जन्मोत्सव के एक दो पदों के बाद ही आगे बढ़ गये । सूर का भ्रमरगीत विरहगीत है । कृष्ण के विरह में राधा की वेदना । जैन काव्यों की राजुल से मिलती-जुलती है। दोनों के भावों का साम्य हू-बहू है | विवाह मण्डप तक आकर बिना विवाह किये ही नेमीश्वर पशुओं की पुकार से द्रवित होकर दीक्षा ले गिरिनार पर चले गये । विवाह मण्डप में बैठी राजुल ने यह सुना तो उसकी असह्य वेदना हृदय की शत-शत प्रश्र धाराओं में विगलित हो उठी । कृष्ण भी राधा को बिना कहे मथुरा चले गये फिर लौटे नहीं। दोनों में 'अद्भुत साम्य है। सूर के भ्रमरगीत और विनोदीलाल तथा लक्ष्मीवल्लभ के 'बारहमासों' में तुलना का पर्याप्त क्षेत्र है । किन्तु, जहाँ कभी-कभी भ्रमरगीत निर्गुण के खण्डन में दत्तचित्त-सा दिखाई देता है, वहाँ जैन विरह काव्य, नितांत काव्य की सीमा तक ही सीमित है । उसमें खण्डन-मण्डन जैसी बात नहीं है । गोपियों के पैने तर्कों ने ऊधौ - जैसे दार्शनिक को निरुत्तर कर दिया। काव्य रस में यह तर्क-प्रवणता कही कहीं रसाभास उत्पन्न करती है । जैन काव्य उससे बचे रहे । जैन कवि राजुल, सीता और अञ्जना के विरह गीतों तक ही सीमित नहीं रहे, उनका गुरु-विरह एक मौलिक तत्व है । गुरु के विरह में शिष्य की बेचैनी राजुल से कम नहीं । दूसरी ओर जैन कवियों ने सुमति को राधा कहा और परमात्मा के विरह में उसकी बेचैनी हिन्दी काव्य को नयी देन है। इन सन्दर्भों में प्रकृति-निरूपण भी स्वाभाविक है । - 55555556 में 156666695%
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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