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________________ बनारसी का प्राराध्य 'सुख सागर' था । अर्थात् उसका सुख ऐसा था, जिसमें जन्म-मरण, लाभ-हानि और लीन-विलीन का प्रस्थैर्य नहीं था, वह सहज था। अर्थ है, स्वाभाविक था, दिव्य था, एकतान था । उसमें ज्ञान का उजाला था, वह भी सहज ही था, प्रयत्नपूर्वक कहीं से लाया नहीं गया था । अर्थात् वह श्रात्मा का स्वाभवरूप स्वतः ही खिल उठा था । जब अज्ञान की परतें हट जाती हैं तो ज्ञान ' रात्र्यधकार' के उपरान्त जगमगाती ऊषा की भाँति स्वत: दमक उठता है । जिसमें उसका यह सहज शुभागमन हो चुका है, वह सहज सुख सागर है। बनारसी ने 'नाटक समयसार' में उसे "ज्ञान को उजागर सहज सुख सागर" कहा है। किन्तु यह सहज सुख तभी उत्पन्न हुमा, जबकि वह देव पहले से ही श्रेष्ठ गुण रूपी रत्नों का आगर था । श्रेष्ठ गुरण के दो मोड़ होते हैं - एक संसार की ओर मुड़ता है और दूसरा दिव्य लोक की ओर । बिना श्रेष्ठ गुरगों के सांसारिक वैभव उपलब्ध नहीं होते, यहाँ श्रेष्ठ गुणों का तात्पर्य ऐसे गुरणों से है, जिनके सहारे यह जीव धनोपार्जन करता है और अन्य सांसारिक व्यवहारों में प्रतिष्ठित माना जाता है। दूसरा परमसुख से सम्बन्धित है । यहाँ 'श्रेष्ठ गुण' का अर्थ 'श्राध्यात्मिक गुरण' से है । उनके बिना बड़े से बड़ा भक्त भव-सागर नहीं तैर सकता और न 'ब्रह्मलोक' पाने में समर्थ हो पाता है । इस प्रकार श्रेष्ठगुरण दो अर्थों से समन्वित है, अर्थात् श्लेषवाची है । इस श्लेष - जन्य द्वंध को मिटाने के लिए बनारसीदास ने लिखा कि वह 'सगुन रतनागर' तो है, किन्तु 'विराग-रस-भरयो' है । विराग-रस से भरा श्रेष्ठ गुण संसार से विरक्ति दिलाने वाला ही होगा। इसका तात्पर्य निकला कि उसमें चक्रवर्ती का पद और वैभव दिलाने की क्षमता होगी, किन्तु विराग-रस से संलग्न होने के कारण, वैभव - सम्पत, वैभवों को त्यागता हुआ वन की राह लेगा । धन और धन के प्रति उदासीनता, संसार और संसार के प्रति वैराग्य, दोनों साथ-साथ चलते हैं । दोनों का यह गठबन्धन जितना पावन है, उतना ही आकर्षक । बनारसी का "सगुरण-रतनागर विराग रस भर्यो है" इसी का निदर्शन है । R इसी संदर्भ में वीतरागी भगवान् से 'वैभव - याचना' का अर्थ समझा जा सकता है । अपने-अपने प्राराध्य से भौतिक कामनाओं के पूर्ण होने की प्रार्थना astra और जैन दोनों ने को। दोनों को सफलता प्राप्त हुई, यह तथ्यांशों के १. वही, ११५, प्रथम पंक्ति, पृष्ठ २ । २. नाटक समयसार, ११५, द्वितीय पंक्ति, पृष्ठ २ । wwww S 55555555X 55555
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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