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________________ SMERITA NEL Lear HTHAPAN और संकट से छुटकारा प्राप्त करने में समर्थ हो पाता है । बनारसी का कथन है "दीनदयालु निवारिये, दुख संकट जोनि बसेरा। मोहि अभय पद दीजिये, फिर होय नहीं भव-फेरा ॥"" ऐसे 'भगवन्त' की 'भगति' बनारसीदास के हृदय में बसी है। भक्ति कृत्रिम नहीं है, उसमें सहज भाव है । सरल हृदय में कृत्रिमता नहीं होती । वह दिखावे से दूर रहता है । बनारसी की भक्ति भी स्वाभाविक ही थी। यह बात और भी पुष्ट हो गई जब यह विदित हुआ कि 'कुमति' कही चूपचाप विलीन हो गई और 'सुमति' न-जाने कब प्रा विराजी है। वह हृदय, जो तमसाच्छन्न रहता था, अब विमल ज्योति से जगमगा उठा है। जो हृदय करता की उष्ण उसांसों से तप्तायमान था, अब 'दया' की मन्द-सुगन्ध पवन से शीतलता का अनुभव कर रहा है। लालसा अब भी जन्म लेती है, किन्तु वह भगवान् के दर्शन के अतिरिक्त और किसी की नहीं होती। यदि भक्त हृदय भगवान् के सम्मुख जा भारती करने को ललकता है, तो उसमें सन्निहित लालसा भगवद्परक होने के कारण दिव्य ही ठहरायी जायगी । उद्दाम भक्ति-भीने भाव हृदय में समाते नहीं, तो उमंगित हो, तटों को तोड़ बाहर फूट पड़ते हैं । उनका यह बलात् विस्फोट भक्ति का पावन चित्र है। सूरदास का 'शोभा-सिन्धु न अन्त लही री' इसका निदर्शन है और बनारसी का "कबहौ सुभारती है बाहिर बगति है" में भी वह ही बात है। १. प्राध्यात्म पद पंक्ति, २१ वा पद्य, बनारसीविलास, पृ० २३६ । २. कबहों सुमति ह कुमति को विनाश कर, कबहों विमल ज्योति अन्तर जगति है । कवहो दया चित्त करत दयाल रूप, कबहों सुलालसा व लोचन लगति है ।। कबहो प्रारती व के प्रभु मनमुख पावे, कबहो सुभारती व बाहरि बगति है। घरै दसा जैसो तब कर रीति तैसी ऐसी, हिरद हमारे भगवन्न को भगति है ।। नाटक समयसार, १।१४, पृष्ठ ५। guarayangamnerawal
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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