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________________ SANSAR SCREE कहा है । वह भगवान् के चरणों में लो लगाये रहती है । लौ लगाने से उसे तृप्ति मिलती है। और इस प्रकार वह अपने जीवन को सार्थक समझती है। कवि जगराम के अनेक पद सुमति रूपी राधा की जिनेन्द्र-निष्ठा को प्रगट करते हैं। उनकी राधा जिनेन्द्र के साथ रमण करती है। इसी कारण उन्हें 'राधा-रोन कहा जाता है। राधा-रोन की बात कवि बनारसीदास ने भी की है। उन्होंने 'अब अन्तरगति भई हमारी, परचे राधा-रौन सौं' लिखकर 'राधा-रोन' से परिचित होना स्वीकार किया है। इससे सिद्ध है कि बनारसीदास के पाराध्य 'राधारमण' थे। केवल राधा का नाम उन्हें अभीष्ट नहीं था। उन्होंने राधा की सार्थकता इसी में समझी कि वह कृष्ण के साथ रमण करे । रमण का अर्थ है-द्वित्त्व मेट कर एकत्त्व स्थापित करे। यह तभी सम्भव है, जब वह एकमेक होने की भावना भाये। इसी को भक्ति कहते हैं। भक्ति का प्रतीक बने बिना 'सुमति' की सुष्ठु मति भी निरर्थक ही है । अतः सद्बुद्धि वह ही है जो भक्ति की धार पर सघ सके। बनारसीदास ने सुमति को राधा ही नहीं, सीता, भवानी और गंगा भी कहा। "यहै राम रमणी सहजरूप सीता सती ४' के द्वारा उन्होंने सीधे-सीधे ही सती सीता की सार्थकता राम के साथ रमण करने में स्वीकार की। उनकी एक पंक्ति, “यहै भवभेदिनी भवानी शम्भु घरनी"५ में भवानी का शम्भु को घरवाली होना ही प्रमुख है । "यह गंगा त्रिविध तीरथ की धरनी'' से स्पष्ट प्रगट है कि गंगा की महिमा त्रिविध तीर्थ धारण करने में ही है। इसे 'जिन महिमा कहकर बनारसीदास ने माना कि 'सुमति' का सौन्दर्य तभी है, जब जिनेन्द्र उसे अपनी महिमा के रूप में अंगीकार कर सकें । जिन-शासन में वह इसी रूप में विख्यात है। 'जिनेन्द्र की महिमा' कहलाने का गौरव उसे जिनेन्द्र की कृपा के बिना न मिला होगा, यह सुनिश्चित है । और भगवान् की कृपा भक्ति के बिना १. पं० दौलतरामः आध्यात्म बारहखड़ी, दि० जैन पंचायती मन्दिर, बड़ौत की पाण्डु लिपि, पृष्ठ २५३, १७ वा पद्य । २. पद संग्रह, दि० जैन पंचायती मन्दिर, बड़ौत की पाण्डुलिपि, पृष्ठ १७,८ वां पद । ३. प्राध्यात्मपद पंक्ति, १४ वा पद, बनारसी विलास, पृष्ठ २३२ । ४. नव दुर्गा विधान, ७ वो पद्य, बनारसी विलास, जयपुर, पृष्ठ १६६ । ५. वही, पाठयाँ पद्य, पृष्ठ १७० । ६. वही, पाठवा पध, पृष्ठ १७० । ७. वही, ९ वा पद्य, पृष्ठ १७० । 154 5419 555* 1*1951. 55.55.515615714
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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