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________________ AEEEEEEEER THAPA क को और भी पुष्ट किया। राधा रस की प्रतीक ही थी। उसके नाम पर न-जाने कितने रस-पंथों और ग्रन्थों की रचना हुई । चैतन्यचरितामृत, गीतगोबिन्द, विद्यापति की पदावली और सूरसागर राधा के जयगीत हैं । रीतिकाल के अनेक कवियों ने अपनी शृङ्गारपरक रचनाओं का प्रारम्भ राधा की चरण-वन्दना से ही किया। बिहारी के 'मेरी भव-बाधा हरी राधानागरि सोइ" से सब परिचित है । राधा को सन्त कवियों ने 'प्राध्यात्मिक सुषमा' के रूप में स्वीकार किया है। उनकी सुन्दरी राधा, उनके हृदय में स्थित राम के साथ रमण करती है। वे दोनों एक हैं। अत: राधा 'निरवानी' है, अर्थात् निर्वाण की अलौकिकता का चिह्न है । जब तक राधा अबोध है, रीझी नहीं, तब तक उसे राधा नही कहा जाता । अर्थात् राधा तभी राधा है, जब वह राम पर रीझ कर तन्मयता की धुनि में मूच्छित हो-हो उठे । तद्रूप हुए बिना उसे चैन न मिले । गोकुल में, ऊधौ ने ऐसी ही बेचैन राधा के दर्शन किये थे । उसी को सन्त कवियों ने 'सुमति' की संज्ञा से अभिहित किया है। 'सुमति' और 'सबुद्धि' पर्यायवाची हैं। इसका अर्थ हुआ कि राधा की भाँति मबुद्धि उसी को कहा जायेगा, जिसकी शक्ति राम-मय होने में तल्लीन रहती हो । यदि ऐसा नहीं है तो वह बुद्धि तो कहला सकती है; किन्तु उसका सविश्लेषण निरर्थक ही रह जायेगा । आराध्य के चरणों में चढ़ने से ही उसकी कृतार्थता है। बनारसीदास इसी मत के समर्थक थे उनकी राधा की एक झलक देखिये "धाम की खबरदार राम की रमन हार, राधा रस पंथनि में ग्रन्थनि में गाई है । सन्तन की मानी निरवानी रूप की निसानी, यात सद्बुद्धि रानी राधिका कहाई है ।।' "भैया भगवतीदास' ने भी सद्बुद्धि को मस्तिष्क का विलास नहीं, अपितु भक्ति-रस का प्रतीक माना है । बनारसीदास की सद्बुद्धि की भाँति वह भी मोह और काम को विडार कर राम की रट लगाया करती है। वह कर्म रूपी घटाओं को फाड़कर चन्द्ररूपी राम से सुधामयी हो गई है। उसने सतत श्रद्धा-प्रसून समपित कर जिनेश की प्रतीति प्राप्त कर ली है और स्वयं भी चिदानन्द वन गई है ।२ पण्डित दौलतराम ने 'प्राध्यात्म बारहखड़ी' में इसी सद्बुद्धि को 'राधा' १. नाटक समयसार, सर्वविशुद्धिद्वार, १४ वॉ पद । २. 'प्राचीन हिन्दी जैन कवि', पं० मूलचन्द्र वत्सल, दमोह, पृष्ठ १४२ । F55555 १२४ 7555500
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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