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________________ PRANAMA HEE LABEts THA कहा जाता है । उनमें रहस्यवादी प्रवृत्तियाँ बिखरी पड़ी हैं। डॉ० हीरालाल जैन ने प्राचार्य कुन्दकुन्द के भावपाहुड का मुनि रामसिंह के दोहापाहुड पर स्पष्ट प्रभाव स्वीकार किया है । कबीर की भाँति ही जैन हिन्दी कवियों में भी अनुभूति, प्रेम, विरह, माया, मिलन और तादात्म्य के रूप में रहस्यवाद के विशद दर्शन होते है । विरह और माया जन्य सरसता जैन कवियों में अधिक है। कबीर के 'विरह भुजगम पेसि कर किया कलेजे घाव, साधू अंग न मोडही ज्यों भावे त्यों खाय' से प्रानन्दधन के 'पिया बिन सुध-बुध खूदी हो, विरह भुजंग निशासमे, मेरी सेजड़ी ख दी हो' में अधिक संवेदनात्मक अनुभूति है । इसी भाँति 'जैसे जल बिन मीन तलफै ऐसे हरि बिन मेरा जिया कलपै' से बनारसीदास के, 'मैं विरहिन पिय के अधीन, यों तलफों ज्यों जल बिन मीन' में अधिक सबलता है और दृश्य को उपस्थित करने की शक्ति । जैन हिन्दी-रचनाओं में तन्त्रात्मक रहस्यवाद के उतने शब्द और प्रयोग नही पाये जाते, जितने जैन अपभ्रंश में उपलब्ध होते हैं। जैन हिन्दी कृतियो में भावात्मक अभिव्यक्ति अधिक है। जहाँ कहीं तन्त्रात्मक रहस्यवाद के दर्शन होते हैं, उसमें वज्रयानी सम्प्रदाय के गृह्य समाज की विकृति नहीं पा पाई है। कुछ विद्वानों ने लिखा है कि जैनों के भगवान् प्रेमास्पद नहीं होते, प्रत उनकी रचनायो में अनुरागात्मक भक्ति का अभाव है। किन्तु. विक्रम की पाँचवीं शताब्दी में होने वाले प्राचार्य पूज्यपाद ने 'अहंदाचार्येषु बहुश्र तेषु प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्ति:' कहा है। वीतराग भगवान् में अनुराग असम्भव नहीं है। आचार्य योगीन्दु का कथन है कि 'पर' में किया गया राग पाप का कारण है । वीतराग परमात्मा 'पर' नहीं, अपितु 'स्व' प्रात्मा ही है । अतः जिनेन्द्र में किया गया राग 'स्व' का राग कहलायेगा। इसी कारण जिनेन्द्र का अनुराग मोक्ष देता है । प्राचार्य कुन्दकन्द ने भावपाहुड, प्राचार्य समन्तभद्र ने स्वयभूस्तोत्र और शिवार्यकोटि ने भगवती आराधना में इसका समर्थन किया है। इससे सिद्ध है कि जैन हिन्दी कवियों को भगवान् के प्रति प्रेम-भाव विरासत के रूप में मिला है। हिन्दी के ख्यातिलब्ध कवि वनारसीदास ने 'पाध्यात्मगीत' में आत्मा को नायक और सुमति को पत्नी बनाया है । उन्होंने एक स्थान पर १ . पाहुडदोहा की भूमिका, डॉ० हीरालाल जैन लिग्वित, पृ० १६ । २ . प्राचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थमिद्धि, काशी, ६-२४, पृ० ३३६ । ३. योगीन्दुदेव (छठी शताब्दी ईसवी), परमात्मप्रकाश, बम्बई, १६३७ ई०, २६ वाँ दोहा, पृ० ३३ तथा १७४ वो दोहा, पृ० ३१७ । 15555555 १००3555555
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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