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________________ YYYYAL विरोध में प्रारम्भ हुई थी। दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी के जैन संतों ने अपभ्रंश भाषा के माध्यम से उन बाह्य माडम्बरों का निर्भीकता के साथ विरोध किया; किन्त उनमें न तो कबीर जैसी अक्खडता थी और न मस्ती । तेजस्विता दोनों में समान थी। हिन्दी के जैन कवियों ने कबीर के साथ-साथ तीर्थ-भ्रमण, चतुवर्णी व्यवस्था, सिर मुंडाना, बाह्य शुद्धि, चौका प्रादि का विरोध किया, किन्तु दोनों में अन्तर भी स्पष्ट था । कबीर, दादू और सुन्दरदास ने इन उपर्युक्त कर्मकलापों को नितांत हेय और अनुपयुक्त माना। किन्तु, महानन्दिदेव, उदयराज जती, महात्मा आनन्दघन आदि जंन कवियों ने उनको तभी व्यर्थ माना, जब उनमें भाव शुद्ध न हो। यदि भाव शुद्ध हों तो ये सब कर्म न तो हेय हैं और न अनुपयुक्त । हां, चतुर्वर्णी व्यवस्था के प्रति उनका स्वर तीखा था और पैना भी। उनका यह स्वर जीवमात्र की समान प्रारमा की स्वीकृति पर निर्भर था। संतकाव्य में गोविन्द से भी अधिक सतगुरु की महत्ता है । मध्यकालीन संत काव्य-धारा के विशेषज्ञ प्राचार्य क्षितिमोहन सेन ने हिन्दी के सतगुरु पर जैन सतगुरु का प्रभाव स्वीकार किया है।' रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी लिखा है कि मध्य युग के साधु-संतों ने अपनी वाणियों के द्वारा ढाई सहस्त्र वर्ष पूर्व हुए भगवान् महावीर के वचनों को ही दुहराया है ।२ जेन परम्परा पंचपरमेष्ठी को 'पंचगुरु' भी कहती है और वे सम्यक्त्व के बिना गुरुपद के अधिकारी नहीं हो सकते, अत: उन्हें सतगुरु कहते हैं । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्रष्ट पाहुड में, मुनि देवसेन ने दर्शनसार और सावयधम्म दोहा में, प्राचार्य जिनदत्त सूरी ने उपदेशरसायनरास में तथा प्राचार्य हेमचन्द्र ने योग-शास्त्र में गुरु का विस्तृत वर्णन किया है। इन ग्रन्थों में जैन गुरु केवल ज्ञानी-नपस्वी ही नहीं, अपितु भक्तों के श्रद्धा-भाजन भी हैं। संत-काव्य के सतगुरु की भक्ति पर जैन सतगुरु की भक्ति का प्रभाव है, ऐसा डॉक्टर रामसिह 'तोमर' ने भी स्वीकार किया है। हिन्दी के जैन और अजैन दोनों ही कवि सतगुरु के चरणों में अपनी भक्ति के पुष्प बिखेरते रहे हैं । जहाँ तक श्रद्धा का सम्बन्ध है, दोनों में समान थी, किन्तु गुरु-भक्ति में जैसे सरस गीतों का निर्माण जैन कवियों ने किया, निर्गुणवादी सत न कर सके । उन्होंने गुरुमहिमा की बात तो बहुत की, किन्तु उसकी भक्ति में वैसी भाव-विभोरता न १. प्राचार्य क्षितिमोहन सेन, Medieaval Mysticism of India, पृ० २। २ . देखिए वही, रविन्द्रनाथ ठाकुर का लिखा हुमा 'Forward' । ३ . डा० रामसिंह तोमर' : 'जनसाहित्य की हिन्दी-साहित्य को देन', प्रेमी अभिनन्दन. ग्रन्थ, पृ० ४६७ । asth 35555555555
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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