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________________ का सम्बन्ध जैन परम्परा से मानता हूं। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी माना है कि नाथ-सम्प्रदाय में जो बारह सम्प्रदाय अन्तम क्त किये गये थे, उनमें पारस और नेमी-सम्प्रदाय भी थे । दोनों जैन थे। इसी कारण नाथ सम्प्रदाय में अनेकान्त का स्वर अवश्य था, भले ही उसका रूप अस्पष्ट रह गया हो। यही अनेकान्त का स्वर अपभश के जैन दूहा-काव्य में पूर्णरूप से वर्तमान है । कबीर ने जिस ब्रह्म को 'निर्गुण' कहा है, योगीन्दु के 'परमात्मप्रकाश' में उसे ही 'निष्कल' संज्ञा से अभिहित किया गया था। 'निष्कल' की परिभाषा बताते हुए टीकाकार ब्रह्मदेव ने 'पञ्चविधशरीररहितः' लिखा ।' महचन्द ने भी अपने दोहापाहुड़ में निष्कल शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में किया है। शरीररहित का अर्थ है-निःशरोर, देहरहित, अस्थूल, निराकार, प्रमूत्तिक, अलक्ष्य । प्रारम्भ में योगीन्दु ने इसी 'निष्कल' को 'निरञ्जन' कहकर सम्बोधित किया है। उन्होंने लिखा है-“जिसके न वर्ण होता है, न गन्ध, न रस, न शब्द, न स्पर्श, न जन्म और न मरण, वह निरजन कहलाता है ।" २ निरञ्जन का अधिकाधिक प्रयोग किया गया है । वैसे 'निष्कल' के अनेक पर्यायवाची हैं। उनमें आत्मा, सिद्ध, जिन और शिव का स्थान-स्थान पर प्रयोग मिलता है । मुनि रामसिंह ने समूचे दोहापाहुड़ में केवल एक स्थान पर निर्गुण' शब्द भी लिखा है। उन्होंने उसका अर्थ किया है- निर्लक्षण और निःसंग। वह 'निष्कल' से मिलताजुलता है। ___ कबीर की 'निर्गुण में गुण और गुण में निर्गुण' वाली बात अपभ्रंश के काव्यों में उपलब्ध होती है । योगीन्दु ने लिखा- जसु अभंतरि जगु वसई, जगअभंतरि जो जि। इस भाँति मुनि रामसिह का कथन है- तिहुयरिण दीसइ १. परमात्मप्रकाश, ११२५ पर ब्रह्मदेव-कृत-संस्कृत-टीका, पृ० ३२ । २. जासु रण वण्णु ण गंधु रसु जासु रण सदुण फासु । जासु रण जम्मणु मरणु गवि गाउ निरंजणु तासु ॥ परमात्मप्रकाश १।१६, पृ० २७ । ३. हउ सगुणी पिउ णिग्गुणउ शिल्लक्खणु णीसंगु । एकहिं अंगी वसंतयह मिलिउ ण प्रगहि अगु ।। -पाहुड़दोहा, १०० वाँ दोहा, पृ० ३० । ४. जसु अन्मंतरि जगु वसइ जग अभंतरि जो जि । जागे जि वसंतु वि जगु जिरण वि मुरिण परमप्पउ सो जि॥ -परमात्मप्रकाश, ११४१ पृ० ४५ । - 55555755555SGE
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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