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________________ ३५० जैन शिलालेख संग्रह [ ५२८ द्वारा एक मण्डपको स्थापनाका उल्लेख है । दूसरेमें इसी व्यक्ति द्वारा मूर्तिका पादपीठ अर्पित करनेका उल्लेख है। रविवारव्रतकी समाप्तिपर यह दान दिये गये थे । ] [ ए०रि० मै० १९१६ पृ० ८४ ] ५२८ मैसूर शक १७३६ = सन् १८१४, कवड शान्तीश्वर बसति-गर्म गृह के द्वारके पीतल के आवरणपर [ इस लेख मे दनिकार पद्मयके पुत्र नागय-द्वारा ३९३ ( सेर ) वजनके इस पीतल के गन्धकुटी ( द्वार ) के आवरण दान दिये जानेका उल्लेख है । यह दान आश्विन शु० १, शक १७३६, भाव संवत्सरके दिन दिया गया था । ] [ मूल लेख कन्नड लिपिमे मुद्रित ] [ ए०रि० मैं ० १९३६ पृ० १०२ ] ५२६ मैसूर ( शक १७३६ = सन् १८१४ ) संस्कृत-कन्नड शान्तीश्वर बसति सुखनासि द्वारकं आवरणपर श्रीमच्छांतिजिनेन्द्रस्य पंचकल्याणसंपदः । श्रिया मेरुजिनागारं हसतश्चैक्यवेश्मनः ॥ १ ॥ परार्ध्यं रचनोपेतं कवाटमिदमद्भुतं । कारयामास सद्भक्त्या श्रावको जैनमार्गतः ॥ २ ॥ नागनामा पितुः स्वस्य मरिनागाह्वयस्य च । धनिकारपदापस्य स्वर्मोक्षसुखभये ॥३॥
SR No.010113
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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