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________________ २२ जैनशिलालेख-संग्रह [२८७१८ ..."च यैरवगण्यते ॥३४ वादिनो यत्पदद्वंदनखचंद्रेषु बिबिताः । कुर्वते विगतश्रीकाः कलंक१९ ."दं तीर्थभूतमनादिकं ॥३६ सीतायाः स्थापना यन सोमेशः पक्षपातकृत् । बामन्त्रैलोक्य२० तदुद्धतं तेन जातोद्धारमनेकशः ॥३८ चैत्यमिदं ध्वजमिषतो निजभुजमुद्धस्य सक.. २१ .."षतो मंडलगणिकलितकीर्तिसस्कीतिः । चतुरधिकविंशखिलस ध्वजपटपटुहस्तक."मेतदीयसद्गोष्ठिकानामपि गल्लकानां ॥४१ यस्य स्नानपयो नुलिप्तमखिलं कुष्ठं दनी२३ चंद्रप्रभः स प्रभुस्तीरे पश्चिमसागरस्य जयताद् दिग्वाससां शासनं ॥४२ जिनपतिगृह१४ चार्यवों व्रतविनयसमेतैः शिष्यवर्गश्च साई ॥४३ श्रीमद्विक्रम भूपस्य वर्षाणां द्वाद (श)२५ कीर्तिलघुबंधुः । चक्रे प्रशस्ति मनघा (मतिदिव्यां) प्रवरकीर्ति रिमां ॥४५ सं १२..." [ यह लेख टूटा है तथा उसका आधा भाग मिल नही सका है। गुजरातके चौलुक्य राजा भीमदेव ( द्वितीय ) के समय बारहवीं सदीके अन्तिम चरणमे यह उत्कोण किया गया है। पश्चिम समुद्रके तीरपर चन्द्रप्रभ तीर्थकरका पुरातन मन्दिर था । यहाँकी मूतिके गन्धोदकसे कुष्ठरोग दूर होता था। इस मन्दिरके जीर्णोद्वारका इस लेखमे वर्णन है। आचार्य कुन्दकुन्दको परम्परामे नन्दिसंघमे श्रीकोति मुनि हुए। ये चित्रकूटसे नेमितीर्थकरके तीर्थ (गिरनार ) की यात्राके लिए जाते हुए मुजरातकी राजधानी अणहिल्लपुरमें आये । वहाँ राजाने उनका सत्कार कर उन्हे
SR No.010113
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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