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________________ प्रस्तावना लेखमें दिये हैं। इस गच्छके चौथे लेख (क्र. ४७६ ) मे सन १५५६ मे देवकीर्ति-मुनिचन्द्र-देवचन्द्र यह परम्परा दी है। लेखके समय देवचन्द्रको कुछ दान मिला था। मेषपाषाणगच्छके दो लेख हैं (क्र० २१४, ६०३)। पहले लेखमे सन् ११३० मे प्रभाचन्द्र के शिष्य कुलचन्द्र आचार्यका वर्णन है। दूसरा लेख इस गच्छकी एक बसदिके बारेमें है।' पुस्तक गच्छका एक लेख (क्र० २४० ) सन् ११५० का है किन्तु यह बीच-बीचमे घिसा हुआ है अतः इसका तात्पर्य स्पष्ट नहीं है।' बारहवीं-तेरहवीं सदीके चार लेखोंमें ( क्र० २०२, ३१२, ३२६, ३७३ ) क्राणूरगणके कनकचन्द्र, माधवचन्द्र तथा सकलचन्द्र आचार्योंका वर्णन है । इनका गच्छ नाम अज्ञात है। ___ इस तरह कोई १५ लेखोंसे क्राणूरगणका अस्तित्व दसवीं सदीसे सोलहवी सदी तक प्रमाणित होता है । (श्रा ७) निगमान्वय-मूलसंघ-निगमान्वयका एक लेख (क्र. ३६०) सन् १३१० का है। इसमे कृष्णदेव-द्वारा एक मूर्तिको स्थापनाका उल्लेख है। उपर्यक्त विवरणसे मलसंघके भेद-प्रभेदोंका अच्छा परिचय मिलता है। कोई १५ लेखोंमें किसी भेदका उल्लेख किये बिना मूलसंघका उल्लेख मिलता है। इनमें प्राचीनतर लेख (क्र० ११२, १४५, २०४) दसवीं१. पहले संग्रहमें मेषपाषाणगच्छका पहला उल्लेख सन् १०७९ का है (क्र० २१९) २. पहले संग्रहमें इस गच्छका कोई उल्लेख नहीं है ( देशीगण तथा सेनगणमें मी पुस्तकगच्छ थे उनका वर्णन पहले आ चुका है।) ३. पहले संग्रहमें इस अन्वयका कोई लेख नहीं है।
SR No.010113
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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