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________________ १२ जैनशिलालेख-संग्रह ४०४, ४३४)। बलात्कारगण-सरस्वतीगच्छकी उत्तर भारतीय शाखाओंके तीन लेख इस संग्रहमें है (क्र० ४४८, ४६०,४६८ )। इनमे सन् १५०० मे रत्नकीर्तिका तथा सन् १५३१ में धर्मचन्द्रका उल्लेख है। (आ६) क्राणूर गण - इस गणके उल्लेखोंमे पहला दसवीं सदीका है (क्र० ९६ )। इसमें एक विस्तृत गुरुपरम्पराका वर्णन है किन्तु लेखके बीच-बीचमें घिस जानेसे इस परम्पराका ठोक ज्ञान नहीं होता। इस लेखमे मुनिचन्द्र आचार्यके एक शिष्यको कुछ दान मिलनेका उल्लेख है।। क्राणूर गणके तीन उपभेदोंके उल्लेख मिले है - तिन्त्रिणी गच्छ, मेषपाषाण गच्छ तथा पुस्तकगच्छ । तिन्त्रिणी गच्छके ६ लेख हैं ( क्र० २१२, २९१, ३२३, ४७६, ५६५, ६१९)। पहले दो लेख बाहारवीं सदीके है तथा इनमें मेघचन्द्र तथा पर्वतमुनि इन आचार्योका वर्णन है। तीसरा लेख सन् १२०७ का है तथा इसमें अनन्तकोति भट्टारकको कुछ दान मिलनेका वर्णन है। अनन्तकीतिके पूर्ववर्ती छह आचार्योके नाम भी इस १. इस परम्पराका वर्णन पहले संग्रहके क्र. ५७२ तथा ५८५ में २. पहले संग्रहमें ऐसे दो लेख हैं (क्र. ६१७, ७०२)। क्र. ६१७ में इस मदसारद गच्छ पढ़ा गया है, यह 'श्रीमदशारद गच्छ'अर्थात् सरस्वनीगच्छका ही रूपान्तर है। उत्तर भारतमें बलात्कारगणकी दस शाखा १४वीं सदीसे २०वीं सदी तक विद्यमान थीं। इनका विस्तृत वृत्तान्त हमने 'भट्टारक सम्प्रदाय' में दिया है। ३. पहले संग्रह में क्राणूरगणका प्राचीनतम लेख सन् १०७४ का (क्र. २०७ ) है। ४. पहले संग्रहमें तिन्त्रिणीगच्छका पहला लेख सन् १०७५ का ( क्र.
SR No.010113
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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