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________________ जैनशिलालेख-संग्रह [२६०वंशपरम्परा इस प्रकार दो है - मारगौड - आचगौड - होल्लिगौड - जिन्नण, कालण तथा मदुवण । इनमें जिन्नण गण्डरादित्यका सेनापति था तथा कालण विजयादित्यका। कालणकी पत्नी लन्छले थी तथा उसे तीन पुत्र थे-जिन्नण, आचण तथा रामण । कालणने एक्कसम्वुगेमें नेमिनाथबसदि बनवायी तथा उसके लिए यापनीय संघ-पुन्नागवृक्षमूलगणके महामण्डलाचार्य विजयकीतिको कुछ भूमि दान दी। विजयकीतिको गुरुपरम्परा यह थी - मुनिचन्द्र-विजयकीर्ति-कुमारकीति विद्य-विजयकीति ( प्रस्तुत ) । इस मन्दिरकी कीर्ति सुनकर राजा कार्तवीर्यने भी इसके दर्शन किये तथा फाल्गुन शु० १३ शक १०८७ को विजयकोतिको कुछ भूमि दान दी।] [ ए० रि० मै० १९१६ पृ० ४८ ] २६० मन्तगि ( धारवाड, मैसूर ) राज्यवर्ष १० = मन् ११६५, कन्नड [ यह लेख कलचर्य गजा बिज्जणदेवके राज्यवर्ष १०, पार्थिव संवत्सरमे (?) मासके शु० ५. गरुवारके दिन लिखा गया था। पान्थिपुर ( वर्तमान हनगल) के कलिदेक्सेटि-द्वारा चतुविंशति तीर्थकरमूर्तिकी प्रतिष्ठा तथा मन्दिरके निर्माणका इसमे उल्लेख है । इसके लिए नागचन्द्र भट्टारकको कुछ दान दिया गया था। हानुंगल नगर तथा कलिदेवसेट्टिको विस्तृत प्रशंसा की है। रि० इ० ०० १९४७-४८ क्र० २०७ पृ० २५ ] अरसीवीडि ( विजापूर, मैसूर ) राज्यवर्ष ५२= सन् ११६७, कन्नड [ इस लेखमे कलचुयं राजा भुजबलमल्लके राज्यवर्ष १२, सर्वजित
SR No.010113
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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